पुराणों में वर्णित सरस्वती नदी एक वास्तविकता थी यह बात विगत कुछ वर्षों में हुए पुरा अन्वेषणों से स्थापित हो चुका है. तो बात उसी समय की है जब सरस्वती घाटी सभ्यता पर ग्रहण लग रहा था। लगातार सूखा पड़ने लगा और खेती किसानी ठप्प हो गयी. खाने को अन्न के लाले पड़ने लगे. ब्राह्मणों को चिंता होने लगी. उन्होंने अपने गुरु सारस्वत मुनि (दधीची के पुत्र) के निर्देशानुसार सरस्वती नदी के मछलियों को खाकर जीवन निर्वाह किया. नदी में पानी की कमी से मछलियाँ भी लुप्त होने लगीं तब वहां से पलायन के अलावा कोई चारा नहीं बच रहा. एक समूह उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर गया और कश्मीर सहित कई प्रदेशों में जा बसा. दूसरा समूह गंगा के किनाने किनारे चलते पूरब की तरफ मिथिला जा पहुंचा. कुछ लोग पश्चिम/दक्षिण पंजाब, सिंध , गुजरात और राजस्थान की ओर बढ चले और एक बड़ा समूह दक्षिण की तरफ कूच कर गया. मछली खाने के आदी इन ब्राह्मणों को ही सारस्वत ब्राह्मण कहा जाता है.
इन सारस्वतों के बारे में एक पौराणिक कथा यह भी है कि एक बार श्री रामचन्द्रजी ने राजसूय याग (यज्ञं) का आयोजन किया. लक्ष्मण को निर्देशित किया कि सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित करे. निर्धारित तिथि के पूर्व संध्या पर श्री राम ब्राह्मणों के डेरे पर गए (जहाँ उन्हें ठैराया गया था), कुशल क्षेम पूछने. वहां उन्हें एक भी सारस्वत ब्रह्मण नहीं दिखा. चिंतित हो लक्ष्मण से पूछा कि सारस्वत लोग क्यों नहीं पहुंचे. तब उन्हें पता चला कि उन्हें तो निमंत्रित ही नहीं किया गया है क्योंकि वे तो भ्रष्ट लोग हैं. मछली खाते हैं न. तब श्री राम ने लक्ष्मण से मछली खाए जाने का तरीका जानना चाहा. लक्ष्मण ने पूरी प्रक्रिया समझा दी. यह कि पहले मछली पकड़ते हैं फिर उस के सर और पूँछ को काट देते हैं. बीच के हिस्से को खाने के लिए रख लेते हैं. फिर सर के साथ पूँछ को मिलाते हुए कुछ मन्त्र जाप करते करते हुए फूंक मारते हैं. इसके बाद सीधे नदी में डाल देते हैं. मछलियाँ फिर जीवित होकर तैरने लग जाती हैं. इस पूरे किस्से को सुनकर श्रीराम ने कहा, फिर जीव हत्या तो नहीं हुई. उन्हें अयोग्य मानकर चलना तुम्हारी भूल है. उन्हें भी आदर पूर्वक ले आओ.
तो जो समूह दक्षिण की तरफ कूच कर गया था वही बड़ी संख्या में गोवा में जा बसा. उनकी गिनती सफल व्यापारियों और प्रशासकों में होती थी. एक बडी संख्या उनकी भी थी जो खेती किसानी में अग्रणी बने. मध्य युग में कुछ सारस्वत ब्राह्मण बिहार आदि पूर्वोत्तर राज्यों से भी गोवा में आये थे. गोवा के सभी सारस्वतों को “गौड सारस्वत” की संज्ञा दी गई क्योंकि ये गौड़ देश या उत्तर से आये थे. इनके देवी देवताओं में शिव का स्थान महत्वपूर्ण था अतः जब ये लोग अपने मूल स्थान को छोड कर जब आगे बढ़ते गए तो अपने काफिले में अपने शिव लिंग को भी साथ ले जाते.
पर्यटन के लिए गोवा जाने वाले लगभग सभी पंजिम (पाणाजी) से 23 किलोमीटर दूर और मडगांव से भी करीब उतनी ही दूर स्थित मंगेशी मंदिर के दर्शन जरूर कर आते हैं. यह मंदिर पहले कभी कोर्टालिम (कुशस्थली) में हुआ करती थी. पुर्तगालियों के द्वारा प्रारंभ में स्थानीय हिन्दुओं और मुसलमानों को धर्मान्तरण के लिए अपनी क्रूर नीतियों के द्वारा हद से ज्यादा प्रताड़ित किया गया. सन 1560 से शुरू किये गए गोवा इन्कुईसिशन के तहत उनकी बर्बरता अपने चरम पे रही.
स्थानीय लोगों को आतंकित करने के लिए यातनाएं दी जाती थीं. सभी मंदिर/मस्जिद तोड डाले गए और लोगों को अपने धर्म के पालन पर पाबन्दी लगा दी गई. परिणामस्वरूप स्थानीय लोग ईसाई बनने के लिए वाध्य कर दिए गये. कुछ ब्राह्मणों ने जो अधिक संपन्न थे, अपनी अकूत संपत्ति को बनाए रखने की गरज से ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था. दूसरों ने वहां से पलायन करना ही श्रेयस्कर माना.
बात चल रही थी मंगेशी मंदिर की जो उपरोक्त कारणों से विस्थापित होकर पोंडा के हिन्दू राज्य में पहुँच गई. कहते हैं पूर्व में एक छोटा सा मंदिर बनाकर लाये गए शिव लिंग को स्थापित किया गया. मराठों के काल में मंदिर का विस्तार किया गया. इस मंदिर की वास्तुकला दूसरे सभी मंदिरों से भिन्न है और अपनी एक अलग पहचान रखती है. यह गोवा का सबसे बड़ा मंदिर भी है. गर्भ गृह के सामने कलात्मक खम्बों से युक्त एक विशाल मंडप बना है. मंदिर के सामने सात मंजिला द्वीप स्तम्भ विलक्षण है.
गोवा का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मंदिर शांता दुर्गा का है जो वर्तमान पोंडा तहसील के कवालेम में पहाड़ियों की ढ़लान पर बनी है. यह जगह पंजिम से 33 किलोमीटर दूर पड़ती है. मंगेशी मंदिर की तरह यह मंदिर भी मूलतः केल्शिम नामक जगह में थी जिसे पुर्तगालियों ने सन 1564 में बेरहमी से तुडवा दिया था. भक्तों ने देवी को कवालेम स्थानांतरित कर एक छोटा मंदिर बनवा लिया. सन 1738 में मराठों के शासनकाल में इस मंदिर का नवनिर्माण हुआ. इस सुन्दर मंदिर का निर्माण भी एक विशिष्ठ शैली की है और पुर्तगाली वास्तुकला से प्रभावित भी है. गर्भ गृह के ऊपर बने गोलाई लिए हुए शिखर को देख कर चर्च का भी आभास हो सकता है. इस मंदिर के सामने भी मंगेशी मंदिर की तरह का दीप स्तम्भ बना है. मंदिर के बाहर बनी बावड़ी भी सुन्दर है और दक्षिण भारत के मंदिरों की याद दिलाती है.
वैसे तो यहाँ की देवी के बारे में बहुत सारी किंवदंतियाँ हैं परन्तु जो अधिक प्रचलन में है वह ये कि शिव और विष्णु के बीच कभी युद्ध हो चला था. ब्रह्मा के आग्रह पर दोनों को समझाने और सुलह कराने के लिए देवी ने यह रूप धरा और दोनों को अपने हाथों से (कान पकड़ कर ?) उठा लिया और शांति स्थापित की. यही कारण है कि यहाँ की देवी दुर्गा को शांता दुर्गा कहा गया है.
इस से एक बात याद आ रही है. साधारणतया ऐसे आख्यान प्रतीकात्मक होते हैं. गौड़ सारस्वत लोग शैव थे परन्तु 12 वीं सदी में माधवाचार्य ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया था और इनमें से कई लोगों को शिव से विमुक्त करने में सफल रहे. कहीं शांता दुर्गा वाली कहानी इसी परिपेक्ष में तो नहीं गढी गई. कर्णाटक और केरल की तरफ पलायन कर गए सारस्वत आज अधिकतर विष्णु की आराधना करते हैं.
गोवा से विस्थापित हुए गौड़ सारस्वतों में प्रभु, पाई, किनी, कामथ आदि उपनाम पाए जाते हैं. भारत के भूतपूर्व क्रिकेट कप्तान श्री सुनील गावस्कर एवं सचिन तेंदुलकर के अतिरिक्त महान गायिका लता मंगेशकर तथा मशहूर फिल्म अभिनेत्री दीपिका पदुकोने भी इसी समाज से हैं.
सितम्बर 13, 2013 को 8:46 पूर्वाह्न
ढेरों नई और रोचक जानकारियां. सचमुच विलक्षण दीप-स्तंभ.
सितम्बर 13, 2013 को 9:05 पूर्वाह्न
गजब का ज्ञानवर्धन करवाते हैं आप.
घुघूतीबासूती
सितम्बर 13, 2013 को 11:41 पूर्वाह्न
बहुत ही रोचक जानकारी, आभार.
रामराम.
सितम्बर 13, 2013 को 12:23 अपराह्न
पहले पढ़ा था, बर्बरता के दंश झेलने के बाद भी अपनी सभ्यता और संस्कृति बचाये रखने के लिये सारस्वत ब्राह्मणों की कृतसंकल्पता प्रशंसनीय है।
सितम्बर 13, 2013 को 8:57 अपराह्न
रोचक आलेख…
सितम्बर 13, 2013 को 9:22 अपराह्न
बहुत सुन्दर ..गज़ब की जानकारियाँ मिलीं ..सबसे बढ़िया मछली वाली 🙂
सितम्बर 14, 2013 को 12:09 पूर्वाह्न
एक ऋषि पर ज़ुल्म करते पुर्तगालियों का चित्र देख कर मन व्यथित हुआ..जब से भारत की धरती पर विदेशियों के कदम पड़े तब से हिन्दुओं पर ज़ुल्म होते आये हैं .
गोवा में इस मंदिर के बारे में सुना था परन्तु अधिक जानकारी आप की पोस्ट से मिली.
गोवा में ही भारत का एकमात्र[?] ब्रह्मा मंदिर भी है.क्या आप ने उसे देखा है?उस के बारे में भी अधिक जानने की उत्सुकता है.
सितम्बर 14, 2013 को 5:48 अपराह्न
गोआ का मतलब आज बस फ़ेनी और समुद्र का किनारा ही रह गया है…
सितम्बर 26, 2013 को 7:47 अपराह्न
मिथकों से मंडित इतिहास
अक्टूबर 2, 2013 को 4:47 पूर्वाह्न
कितने अत्याचार हुए हैं इस देश पर. गौड़ सारस्वत समुदाय के लोगों के साथ लम्बे समय तक काम करने का अनुभव है. अधिकाँश लोग बहुत भले, सरल और स्मार्ट हैं.
अक्टूबर 7, 2013 को 5:28 पूर्वाह्न
आपके ब्लॉग की जानकारी काफी महत्वपूर्ण है..इसतरह की जानकारी से देश के हर हिस्से की जानकारी हमें मिल जाता है..जाहिर है कि हर कोई हर जगह नहीं जा पाता..ऐसे में आपके जैसे ब्लॉग काफी महत्वपूर्ण हो जाते हैं
नवम्बर 5, 2013 को 12:06 अपराह्न
aapke dwara prastut bahut hi rochak aur akarshak hai. nishchay hi goa se sambandhit kuchh anchhue pahlu ki sargarbhit jankari mili.apka blog gyaan ka akut bhandar hai.
नवम्बर 7, 2013 को 8:47 पूर्वाह्न
Quiet informative piece of text. Saraswat is a prestigious caste of Brahmin. Pt. Jawaharlal Nehru was a Kashmiri Saraswat. Even Ravan, the most knowledgeable person who blessed God Ram for his victory against himself and performed the rituals of foundation of Rameswaram temple and from whom Laxman gained knowledge at the order of his elder brother God Ram, was also a Saraswat Brahmin.
नवम्बर 18, 2013 को 2:04 अपराह्न
बहुत अच्छी जानकारी है. बधाई!