कुछ महीनों पहले हमने अपने लिए ४ बनियन खरीदे. उस समय मेरा छोटा भाई यहाँ आया हुआ था. उसने बनियनों को उलट पुलट कर देखा और कहा, यही चीज हमारे यहाँ आधी कीमत में मिल जायेगी. हमने थोडा चिढ कर कहा, ठीक है, जब तुम्हारे पास आयेंगे तो सेवा का अवसर देंगे. कुछ ही दिनों में केरल जाना हुआ था और वापसी में उसके यहाँ कोयम्बतूर में १५ दिन रुकना हुआ. एक दिन उसने पूछा, बनियन लेने कब चलना है. हमने कहा बनियन तो ठीक है हमने सुना है कि अच्छे टी शर्ट भी तिरुपुर में सस्ते मिलते हैं. उसने भी कहा बिलकुल मिलते है, मैं बात करके रखता हूँ.हम एक दिन तिरुपुर हो आते हैं. कार्यक्रम बना और एक दिन तिरुपुर के लिए निकल पड़े.
कोयम्बतूर से उत्तर दिशा में तिरुपुर की दूरी मात्र ५५ किलोमीटर है. ५.५ लाख से अधिक की आबादीवाले इस शहर को देश का होसिएरी केंद्र माना जाता है. तिरुपुर का निटवियर उद्योग देश के तकरीबन 80 फीसदी बुने हुए कपड़ों का उत्पादन करता है. उनका वार्षिक निर्यात लगभग १२,००० करोड़ रुपयों का है. वहां के बुने हुए कपड़ों की घरेलु खपत ५००० करोड़ रुपयों से अधिक है. केवल १०/१२ कारखाने ही हैं जहाँ सभी कार्य (रंगाई सहित) एक ही छत के नीचे होते हैं. प्रत्येक कारखाने में १००० से ३००० तक के कुशल कारीगर कार्यरत हैं. ज्यादातर इकाईयां लघु उद्योगों के दायरे में आती हैं. बुनाई के ५०० और सिलाई के ३००० से अधिक इकाईयां हैं. लगभग हर घर में कुछ न कुछ काम तो होता ही है. रंगाई की भी बहुत सारी इकाईयां थीं परन्तु प्रदूषण की वजह से बड़ी संख्या में इन इकाईयों को बंद करवा दिया गया है. ये सभी इकाईयां एक तरह से एक दूसरे के लिए और कुछ बड़े कारखानों के लिए जॉब वर्क करती हैं. यहाँ के कारखानों में दुनिया भर के सभी प्रमुख ब्रांडों के लिए निटवियर बनाये जाते हैं. लिरिल, रूपा, लक्स जैसे भारतीय ब्रांडों के बनियन भी यहीं बनते हैं. वैसे “यहीं” बनते हैं कहना गलत होगा क्योंकि यह भी एक प्रकार का जॉब वर्क है जो अन्यत्र भी हो सकता है. रेलवे स्टेशन के करीब ही एक बाज़ार (खादरपेट) भी हैं जहाँ आयातकों द्वारा अस्वीकृत माल कम कीमत पर बेचा जाता है.
हम लोग एक बड़े कारखाने में पहुँच गए जहाँ का निदेशक हमारे भाई साहब का मित्र था. इस कारखाने में टी शर्ट के अतिरिक्त महिलाओं/बच्चों के लिय टॉप्स , इनर, स्लिप्स आदि भी बनाये जाते हैं.
हमारी आवभगत हुई और गले में VVIP की पट्टिका लटका दी गयी. हमने प्रारभिक (रुई) अवस्था से ही पूरी कार्य प्रणाली को देखना चाहा. उन्होंने बताया कि धागा बनाने की एक स्वतंत्र इकाई है जो करीब ही थी. वहां स्वचालित मचीनों को देखा. धागा विभिन्न तरीकों से संग्रहीत हो रहे थे. स्पिनडल छोटे भी थे और बड़े भी. कुछ तो ड्रम के आकर से भी बड़े थे जिनमें सैकड़ों समान्तर पंक्तियों में धागे लिपटे जा रहे थे. जब हमने उनका प्रयोजन जानना चाहा तो बताया गया कि उनमें “ताना” है (लम्बाई में समान्तर धागों का समूह). उनमें “बाना” बुनकर कपडा बनेगा. यह काम अन्यत्र किया जाता है. उस इकाई के पिछवाड़े में बोरों में खराब हो चली रुई के ढेर थे. हमने पूछा, इनका क्या करेंगे तो बताया गया कि यह जानवरों को खिलाने के काम आता है और कुछ लोग खेतों में डाल कर जुताई कर देते हैं. यह भी बताया कि उसे लोग ३ रुपये प्रति किलो के भाव से उठा ले जाते हैं.
वापस मुख्य भवन में आकर पहले उन मशीनों को देखा जिनके द्वारा गोलाई में कपडा बुना (निट) जा रहा था. ये गोलाई में विभिन्न आकार के होते हैं. इसके बाद उन्होंने बताया कि आयातकों द्वारा अपने अपने डिज़ाइन उन्हें उपलब्ध कराये जाते हैं जिसे कंप्यूटर में फीड किया जाता है. टेबल पर रखे कपडे की लम्बाई चौडाई के हिसाब से कंप्यूटर कटिंग के लिए ४/५ विकल्प देता है. कपडे को किसी डिज़ाइन के हिसाब से काटने पर कुछ क्षति (कपडे की) तो होगी ही. हमने पाया कि १८% तक की क्षति स्वीकार्य होती है. तो ऐसे ही कमसे कम क्षति होने वाले विकल्प को चुन कर कटिंग मशीन को बटन दबाकर आदेश दे दिया जाता है जिस पर मशीन मिनटों में २५/३० तहों में टेबल पर रखे कपडे को काट पीट कर, बाहँ, कोलर, बीच का हिस्सा अलग कर देता है. इन गड्डियों को इकठ्ठा कर आगे सिलाई के लिए भेज दिया जाता है.
सिलाई करने के लिए अलग व्यवस्था है. कुशल कारीगर कई समूहों में बंटे हैं. सिलाई (बटन टांकना भी शामिल है) के बाद एक अलग जगह उन्हें प्रेस किया जाता है. उसके पश्चात उन्हें तह कर बण्डल बाना दिया जाता है. हर चरण में प्रति व्यक्ति कार्य निष्पादन के आंकलन की समुचित व्यवस्था है. अंतिम चरण में आयातक के निर्देशानुसार उनमें लेबल
लगाये जाते हैं और दिए गए डिजाइन के प्लास्टिक की पन्नियों में पैक कर कार्टन में भर दिया जाता है. निर्यात के पूर्व कारखाने में उपस्थित आयातकों के प्रतिनिधि निरीक्षण कर इस बात की पुष्टि कर लेते हैं कि उनके द्वारा निर्देशित मानकों का पालन किया गया है. कुछ आयातकों के लिए हर पैक पर डॉलर अथवा यूरो में उनका विक्रय मूल्य भी अंकित कर दिया जाता है. यहाँ तक कि कुछ में तो हेंगर भी लगा दिए जाते हैं. मतलब यह कि आयातक को कुछ भी नहीं करना है. सिर्फ डब्बे में से निकाल कर अपने शो केस में टांग भर लेना है. विक्रय के लिए पूरी तरह तैयार.
दुपहर २ बज चले थे और हमें वापस लौटना था. २/४ कहते कहते पूरे २ दर्ज़न टी शर्ट पसंद कर ली और कार्टन में भरवा कर ले आये. बाज़ार से एक चौथाई कीमत पर. पर हाँ उनमें कोई ब्रांड नहीं छपा था. क्योंकि ब्रांडेड वस्त्रों का कारखाने द्वारा स्थानीय तौर से विक्रय प्रतिबंधित है लेकिन वे उत्पादन करते समय १०% अधिक वस्त्रों का निर्माण करते हैं जो हमारे जैसे लोगों को सुलभ कराया जाता है.
अरे हाँ, बनियन तो रह गयी…
फ़रवरी 2, 2012 को 10:46 पूर्वाह्न
🙂 बंगलोर में बहुत बार सुना है अपने दोस्तों से इस तिरुपुर के कारखानों के बारे में…उन्होने बताया था…आज आपके द्वारा देख कर अच्छा लगा…टी-शर्ट बनाने की पूरी प्रक्रिया के बारे में भी पता चला…
धन्यवाद। बहुत रोचक था ये आलेख। 🙂
फ़रवरी 2, 2012 को 11:25 पूर्वाह्न
इसे संयोग कहें कि ‘सौन्देश्वरी’ (सौन्दम्मा, उत्तर भारतीयों की माँ दुर्गा) का हाथ, कि कल ही मेरी खाना बनाने वाली ‘तिरपुर’ से लगभग एक माह के अवकाश के पश्चात अपने रिश्तेदारों से मिल और मंदिर आदि देख कर लौट मुझे अपनी दक्षिण भारत के विभिन्न शहरों की यात्रा आदि के विषय में बता रही थी… और आज आपका तिरुपुर की यात्रा के बारे में लेख पढने को मिला!
उसने फिर आज अभी बताया कि उसके सभी रिश्तेदार, जो काम की तालाश में वर्षों पूर्व दिल्ली आये थे, वे सभी यहाँ अपने झोंपड़ी के एवज में मिले घर बेच, तिरपुर में मकान खरीद, बनियान, टी शर्ट आदि के कुछ न कुछ छोटे बड़े काम में लगे हैं… जबकि इन्होने भी तिरुपुर से थोड़ी दूर, वर्तमान में जंगल में ही, प्लाट खरीदा हुआ है! तीन दशक से अधिक पहले इसके पिताजी दुर्ग में बी एस पी में कार्य कर दिल्ली आये थे…
फ़रवरी 2, 2012 को 11:48 पूर्वाह्न
इस तरह के कपडों की निर्माण-प्रक्रिया जानने की इच्छा बहुत दिनों से थी। आज आपने अनायास ही पूरी कर दी। धन्यवाद। बोलते चित्रों ने पोस्ट को समझने में अत्यधिक सहायता की।
फ़रवरी 2, 2012 को 11:58 पूर्वाह्न
टी-शर्ट की बधाइयाँ. क्या हुआ जो उस पर कोई ब्रांडनेम नहीं था. कभी लुधियाना आइएगा तो यहाँ उन पर किसी भी कंपनी के ब्रैंडनेम का ठप्पा लगवा देंगे :))
फ़रवरी 2, 2012 को 1:55 अपराह्न
बढि़या और रोचक जानकारी. इतने लोग दिखाई पड़ रहे हैं, लग रहा है बाजार यहीं लगा हुआ है.
फ़रवरी 2, 2012 को 2:58 अपराह्न
आपका आलेख पढ़ कर लगा डिस्कवरी चैनल देख रही हूं. उसमें भी कई बार विभिन्न प्रोडक्ट बनाने के तरीके को करीब से दिखाया जाता है. एक अच्छी जानकारी. टी शर्ट तो आपने पहन ली और हमने रूई से लेकर कपड़ों का ताना-बाना समझ लिया.
0 शशि परगनिहा
फ़रवरी 2, 2012 को 4:07 अपराह्न
वाह मजा आ गया ऐसे ही हमने भी एक फ़ैक्ट्री देखी थी, सनावद में यह इंदौर के पास है और हम बहुत सारी नाईक की टी शर्ट खरीद कर लाये थे।
फ़रवरी 2, 2012 को 4:26 अपराह्न
वाह आपका सचित्र वर्णन से तो पूरी प्रक्रिया ही समझ आ गयी ….बस एक्कै ठो अरमान रह गया ….कि ….:-)
फ़रवरी 2, 2012 को 5:10 अपराह्न
रोचक और जानकारीपरक आलेख.तस्वीरों से और जानना और भी सुलभ हो गया.बस ब्रांड के नाम से ही कीमत तीनगुनी हो जाती है.
फ़रवरी 2, 2012 को 8:54 अपराह्न
वाह, सुब्रमनियन जी, पोस्ट में आलेख के ‘ताना’ पर तस्वीरों का क्या खूब ‘बाना’ है! … जब टी शर्ट हाथ में हो तो बनियान की क्या फिक्र करना?
फ़रवरी 2, 2012 को 10:09 अपराह्न
हमें भी तिरुपुर के टीशर्ट…चूड़ीदार आधी कीमत पर मिलते हैं…:)
तिरुपुर के पास रहनेवाली एक सहेली अक्सर लाया करती है…कपड़ों की क्वालिटी बहुत ही अच्छी है.
फ़रवरी 2, 2012 को 10:10 अपराह्न
वहाँ जाकर देखने की उत्सुकता बढ़ा दी आपने..
फ़रवरी 3, 2012 को 12:14 पूर्वाह्न
हम ने तो एक बार बटन बनाने का कारखाना देखा था, और उसी में चकरा गये थे:)
ये जिस 10% की बात आपने कही है, शायद ये मैन्यूफ़ैक्चरर्स का इंसेंटिव है।
टी-शर्ट्स की बधाई, बनियान के लिये शुभकामनायें।
फ़रवरी 3, 2012 को 12:23 पूर्वाह्न
हमें पता होता तो हम भी मंगा लेते…
फ़रवरी 3, 2012 को 9:07 पूर्वाह्न
शानदार पोस्ट ! मैं सोच रहा हूं कि बाज़ार से ठीक पहले २५% कीमत पर माल बेचकर भी कारखाने को कोई नुकसान नहीं है तो बाज़ार में बढे हुए ७५% दाम को लूट कहूँ कि नहीं ?
कोई आश्चर्य नहीं कि बाज़ार / व्यापार , सामान्य नागरिकों यानि कि उपभोक्ताओं के साथ किस बेदर्दी से पेश आता है !
मुद्दा ये है कि इस ७५ % का उपयोग किस लक्ष्य को हासिल करने में किया जाता होगा ? और सरकारें इसे रोकती क्यों नहीं ?
वैसे इस पर प्रतिक्रिया देने से भी क्या फ़ायदा जबकि सरकारें इसी कोठरी से होकर गुज़रती हैं !
फ़रवरी 3, 2012 को 5:40 अपराह्न
रोचक
फ़रवरी 3, 2012 को 6:05 अपराह्न
बहुत अच्छी जानकारी उपलब्ध कराई आपने ,आभार !
फ़रवरी 4, 2012 को 10:32 पूर्वाह्न
Kitni richak Jankari mili, chitron ne sab samjha diya.
फ़रवरी 6, 2012 को 1:20 अपराह्न
लघु उद्योगों का विकास कितने हाथो को काम देता है. यह पलायन भी रोक सकता है. जब तिरुपुर जैसे टी- शर्ट छत्तीसगढ़ में भी मिलने लगेंगे तब हम भी ४दर्जन टी-शर्ट लेंगे.
फ़रवरी 6, 2012 को 4:11 अपराह्न
ये टीशर्ट गाथा पहले दिन ही पढ़ ली थी-जाने कैसे कमेंट रह गया, रोचक रहा जानना!!
फ़रवरी 6, 2012 को 6:12 अपराह्न
बहुत सुंदर विवरण। ऐसी किसी और यात्रा पर जाएं तो बिना कहे मेरे लिए भी कुछ लेते आएं। वैसे इन दो दर्जन में यदि कुछ बच जाएं तो…. 🙂
फ़रवरी 6, 2012 को 6:51 अपराह्न
इस पूरी प्रक्रिया के सचित्र वर्णन का धन्यवाद.
फ़रवरी 7, 2012 को 8:05 पूर्वाह्न
जबरदस्त रिपोर्टिंग ..हमें याद है कि हम राजस्थान के भीलवाड़ा शहर में जब गए थे और वहां विज्ञान संचार की एक कार्यशाला की थी तो बच्चों की ऐसी ही रिपोर्ट देखने को मिली थी …मगर यह तो लाख गुने अच्छी है और सचित्र है ! भीलवाड़ा में इसी तरह सूटिंग और शर्टिंग बहुत सस्ती मिलती है बिना ब्रांड ठप्पे के ….मगर जब वही रेमंड आदि बेचते हैं तो पांच गुना और महंगी बाजार में मिलती है !
फ़रवरी 7, 2012 को 2:44 अपराह्न
इस तरह की जानकारी वह भी सचित्र ब्लॉग्गिंग को और समृद्ध बना रही है, फिर चाहे वह फूलों की कहानी हो या फिर विदेश या देश के दर्शनीय स्थलों का वर्णन हो. कभी ज्ञानवर्धक जानकारी दी है.
फ़रवरी 10, 2012 को 12:18 पूर्वाह्न
i will have to come back and read tonight…my translation software is def not helping right now…thanks for popping over today…
फ़रवरी 10, 2012 को 4:09 अपराह्न
ये बढ़िया है – तिरुपुर में खरीदें और लुधियाने में ठप्पा लगवायें! इसी बहाने दक्षिण से उत्तर का भ्रमण कर लें! 🙂
फ़रवरी 12, 2012 को 9:12 पूर्वाह्न
आपने तो टी शर्ट और बनियान की पूरी जन्म कथा सुना दी । आप किसी भी विषय पर लिखने में सिध्दहस्त हैं ।
फ़रवरी 12, 2012 को 9:35 पूर्वाह्न
आपकी यह पोस्ट बहुत रोचक और संग्रहणीय है सर!
इसका लिंक संदर्भ के लिए सहेज कर रख लिया है।
सादर
फ़रवरी 12, 2012 को 9:40 पूर्वाह्न
आज 12/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
जुलाई 10, 2015 को 7:49 अपराह्न
आपने मेरी जिंदगी की मूसल आसान करदी आपका
आभार केसे चुकाऊगा पता नही धंयवाद
जनवरी 1, 2017 को 5:42 अपराह्न
Mujhe ye, bijnesh chalu karna h iske liye kitna Karcha a jayega plz bataiye
फ़रवरी 4, 2017 को 1:30 अपराह्न
Nice
फ़रवरी 7, 2017 को 6:45 अपराह्न
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फ़रवरी 11, 2017 को 1:03 अपराह्न
बेहतरीन जानकारी
नवम्बर 8, 2017 को 12:05 अपराह्न
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अप्रैल 10, 2018 को 11:02 अपराह्न
Good
मई 7, 2018 को 11:58 अपराह्न
क्या हम लोग होलसेल में लाके यूपी में नही बेच सकते कपडे
अगस्त 2, 2018 को 7:17 अपराह्न
मेरे को सिलाई का काम करना है कोई सिलाई की कंपनी है तो मेरे से संपर्क करें मैं भी सीखा हुआ ट्रेनिंग की है सिलाई की