वर्षों पूर्व सतवाहन राजवंश के पदचिन्हों के अध्ययन में हम कन्हेरी, नानेघाट और नासिक (पांडव लेणी) गुफाओं में उपलब्ध शिलालेखों से अवगत हुए थे. तब से ही निरंतर उत्सुक रहे क़ि कब अवसर मिले क़ि हम इन अति प्राचीन पुण्य स्थलों का भ्रमण कर सकें और कुछ पल उस युग के अहसास में खो जाएँ.
पिछले वर्ष मुंबई प्रवास में हमने अपना मन बना लिया क़ि कोई साथ दे न दे हम तो कन्हेरी (कृष्णगिरी) हो आयेंगे. वैसे साथ देने के लिए हमारा पुत्र तो था ही. संयोगवश हमारे छोटे साले साहब भी झट तैयार हो गए. दादर रेलवे स्टेशन से हम लोगों ने बोरिवली के लिए लोकल (पश्चिम रेलवे) से निकल पड़े. ३० या ४० मिनटों में ही हमलोग बोरिवली में थे. दिन के पौने बारह का समय हो चला था तो सोचा क्यों न पहले पेट पूजा हो जावे. नजदीक के एक भोजनालय में अच्छा खाना भी मिल गया. उसके बाद एक ऑटो वाले से संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान चलने को कहा. मिनटों में हम लोग राष्ट्रीय उद्यान के सामने थे. किराया मात्र १० रुपये. मुख्य द्वार से प्रवेश शुल्क देकर अन्दर हो लिए. प्रसन्नता हुई क़ि कन्हेरी जो वहां से लगभग ६ किलोमीटर अन्दर जंगल में है, की ओर जाने के लिए पर्यटन विभाग की बस खड़ी मिली. मालूम हुआ क़ि हम लोगों को प्रति व्यक्ति २० रुपये देने होंगे. बस के चालक ने बताया क़ि पर्याप्त मात्र में यात्री होने पर ही बस जायेगी. वहां उस समय चार पांच लोग ही थे. प्रतीक्षा करते रहे परन्तु बात नहीं बनी. कुछ देर में एक निजी वाहन आ खड़ा हुआ और उसके चालक ने हम लोगों को ले चलने की पेशकश की. वाहन में पहले से ही कुछ लोग थे. हम तीनों के लिए १०० रुपयों की मांग की गयी और हम लोग गाडी में सवार हो गए. घन घोर और एकदम हरे भरे जंगल को भेदते हुए हमारी गाडी आगे बढती गयी. मुंबई वासियों के लिए प्रदूषण मुक्त श्वसन के लिए अनुकूल. दस मिनटों में ही हम लोग एक पहाड़ के तलहटी में थे जहाँ पुरातत्व विभाग का सूचना फलक और प्रवेश शुल्क वसूली की व्यवस्था थी. हम लोगों को लाने वाली गाडी वहीँ पार्किंग में चली गयी यह बताते हुए क़ि हम लोगों को दो घंटे में वापस आना होगा. हम लोग खरामा खरामा चल पड़े उन सीढ़ियों पर जो चट्टान को तराश कर बनाये गए थे.
कन्हेरी के गुफाओं के समूह को भारत में विशालतम माना जाता है. एक ही पहाड़ को तराश कर लगभग १०९ गुफाओं का निर्माण अन्यत्र नहीं है. यह बौद्ध धर्म के शिक्षा का एक बड़ा केंद्र रहा है चाहे वह हीनयान का हो या फिर महायान का. पश्चिम भारत में सर्वप्रथम बौद्ध धर्म सोपारा में ही पल्लवित हुआ था जो कभी अपरान्तक (उत्तर कोंकण) की राजधानी रही. उसी समय से कन्हेरी को जो सोपारा के करीब ही है, धार्मिक शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किया जाता रहा. इस अध्ययन केंद्र का प्रयोग निरंतर ११ वीं सदी तक किया जाता रहा है. बौद्ध धर्म के उत्थान एवं पतन तक. कन्हेरी की गुफाओं के प्रारंभिक निर्माण को ३ री सदी ईसापूर्व का माना जाता है. और अंतिम चरण के निर्माण को ९ वीं सदी का. प्राम्भिक चरण हीनयान सम्प्रदाय का रहा जो आडम्बर विहीन है. गुफाओं में प्रतिमाओं को भी नहीं उकेरा गया है. सीधे सादे कक्ष. दूसरी तरफ अलंकरण युक्त गुफाएं महायान सम्प्रदाय की मानी जाती हैं.
प्रथम चरण की सीढ़ियों को चढ़ लेने पर एक समतल भूमि मिली और सामने दृष्टिगोचर हो रहा था, पहाड़ियों को काट कर बनायीं गयी गुफाएं. चट्टान जहाँ सबसे ऊंची थी वहां पहाड़ को तराश कर बनाया गया भवन हमें कुछ देखा सा लग रहा था. मस्तिष्क पर जोर डाला तो हमें अपने भ्रम का बोध हुआ.जोर्डन का पेट्रा जैसा लग रहा था. वहां भीड़ भी थी. सर्वप्रथम वहीँ चले गए. वाह्य अलंकरण तो लेश मात्र. परन्तु अन्दर प्रवेश करने पर आँखें चौंधिया गयीं. बायीं तरफ बुद्ध की वरद मुद्रा में खड़ी प्रतिमा, विशाल मंडप, एक विशालकाय हाल, दोनों तरफ अलंकरण युक्त खम्बे, छत गोलाई लिए हुए और हाल के अंत में पत्थर को ही तराश कर बनाया गया एक स्तूप. हमने जोर से कहा, यह तो हमारे लिए अविस्मरणीय रहेगी. हमारे छोटे साले साहब, जो साथ ही थे, ने कहा “आप लोनावला के पास कारला नहीं गए हो. वहां का चैत्य गृह इससे भी विशाल है और कारीगिरी उच्चकोटि की है”. कुछ देर में ही हमें भी लगने लगा की भले ही परिश्रम अत्यधिक रहा हो परन्तु कलात्मकता का आभाव था. दोनों और बने खम्बों में एकरूपता नहीं थी. दाहिनी तरफ के अंतिम ६ खम्बे तो यों ही चौकोर तराशे गए हैं. खैर तो यह था बौद्ध भिक्षुओं के लिए आराधना स्थल. इसे गुफा क्रमांक ३ कहा गया है और वहां के सभी गुफाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है. यह २६.३६ मीटर लम्बा, १३.६६ मीटर चौड़ा और १२.९ मीटर ऊंचा है. इसका निर्माण कार्य सतवाहन शासक यज्ञं श्री सतकरनी के शासनकाल (१७२ – २०१ ईसवी) में प्रारंभ किया गया था. सतवाहन वंश का वह अंतिम प्रतापी राजा था. यज्ञं श्री सतकरनी के मरणोपरांत साम्राज्य निरंकुश हाथों में चला गया और वंश का पतन प्रारंभ हुआ. संभवतः अर्थाभाव के कारण कारीगर पलायन कर गए होंगे. अकुशल कर्मियों से शेष बचा कार्य एन केन प्रकारेण कराया गया होगा. यह बौद्ध विहार सतवाहनों के धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक कहा जा सकता है क्योंकि वे वैदिक धर्म के अनुयायी थे.
कारला का चैत्य गृह – इससे तुलना की गयी थी.
चैत्य गृह के पास ही दो संरचनात्मक स्तूपों का अस्तित्व रहा है. एक पत्थर का बना था. इसकी खुदाई जब की गयी तो अन्दर से, दो ताम्बे के भस्मयुक्त कलश मिले, एक छोटे से सोनेकी डिबिया में कपड़े का एक टुकड़ा, एक चांदी की डिबिया, माणिक्य , मोती, सोने के टुकड़े और ३२४ ई.के दो ताम्र पत्र. दूसरा स्तूप जो ईंटों से बना था उसके अन्दर से एक पत्थर का टुकड़ा मिला जिसपर ५-६ वीं शताब्दी में प्रयुक्त लिपि अंकित थी.
हम लोगों ने इस चैत्य गृह में अत्यधिक समय बिता दिया था इसलिए अब जल्दी करनी पड़ी और बगल में एक दूसरे चैत्य गृह (क्रमांक १) की ओर बढ़ लिए. मूलतः इसे दुमंजिला बनना था परन्तु अपूर्ण ही रहा. इसमें बने खम्बे भीमकाय हैं. बगल में ही अपेक्षाकृत एक छोटी गुफा थी (क्रमांक २). यहाँ एक स्तूप के अतिरिक्त दीवारों पर बुद्ध की एवं अवलोकितेश्वर की मूर्तियाँ उकेरी गयीं हैं. यहाँ की गुफाएं पहाड़ के अलग अलग धरातल पर हैं और चट्टान को तराश कर ही ऊपर जाने के घुमावदर सीढियां हैं. हमें आभास होने लगा क़ि कदाचित उपलब्ध समय में सब कुछ देख पाना असंभव होगा. एक सुधी पर्यटक ने कहा क़ि गुफा क्रमांक १, २, और ३ के अतिरिक्त ११, ४१, ६७, ८९ और ९० में मूर्तिकला मिलती है. अतः हमलोग चल पड़े गुफा क्रमांक ११ की तरफ. इसे दरबार हाल कहा जाता है. अन्दर एक स्तूप के अतिरिक्त दोनों तरफ अगल बगल आवासीय कोठरियां बनी हैं. यहाँ बहुत से शिलालेख भी हैं. गुफा क्रमांक ४१ मत्वपूर्ण है क्योंकि यहाँ भी अवलोकितेश्वर को चार हाथ और ११ सर से युक्त दर्शाया गया है. ऐसी प्रतिमा भारत में अन्यत्र नहीं है. विदित हो क़ि अवलोकितेश्वर जी ने सभी प्राणियों की मुक्ति के पूर्व अपने लिए बुद्धत्व को अस्वीकार कर दिया था. गुफा क्रमांक ६७ में बौद्ध जातक से ली हुई कहानी को दीवारों पर मूर्त रूप दिया गया था. इन सब स्वतंत्र कोठरियों के सामने खम्बे और बरामदे भी हैं. हर कोठरी में बौद्ध भिक्षुओं के शयन के लिए चबूतरे भी बने हुए हैं. इन सभी कोठरियों के सामने छोटी नाली द्वारा
बौद्ध भिक्षुओं की जगह अब बंदरों ने ले ली है!
ऊपर से जल प्रवाहित होकर पहुँच रहा था. इसके अतिरिक्त ऊपर चढ़ते हुए हमने देखा था क़ि वर्षा का पानी चट्टानों से कल कल करता नीचे की ओर प्रवाहित हो रहा था. इस पानी को जल कुंडों में संगृहीत किये जाने की व्यवस्था थी.
हमारे लिए निर्धारित समय सीमा निकट हो चली थी और कुछ हद तक थकान के कारण भी गुफा क्रमांक ६७ से ही लौट पड़े थे. वैसे कान्हेरी में शाम ५ बजे तक रहा जा सकता है. हमें बाद में पता चला था क़ि सबसे ऊपर समतल पठार है जहाँ मृत बौद्ध भिक्षुओं का दाह संस्कार किया जाता था. वहां कई छोटे बड़े कच्चे पक्के ईंटों से निर्मित स्तूप भी बने हुए हैं. जब हमलोग अपनी गाडी के पार्किंग स्थल में पहुंचे तो पाया क़ि चालक हल्ला कर ही रहा था. पुनः बोरीवली पहुँच कर लोकल ट्रेन द्वारा संध्या होते होते घर वापस पहुँच गए.
नोट: वाटरमार्क युक्त चित्रों को छोड़ बाकी सभी विकीमीडिया से लिए गए हैं.
मार्च 17, 2010 को 7:51 पूर्वाह्न
Subramaniyam sir
very nice travelogue……aisa laga ki jaise ham bhi kanheri caves me hain.
मार्च 17, 2010 को 8:25 पूर्वाह्न
कितना अधिक आपकी कमी महसूस कर रहा था, कह नहीं सकता ! ब्लॉग की उत्कृष्टता मिस कर रहा था !
आप आ गये हैं, तो अब आश्वस्ति बनी है, पुनः हम रूबरू होते रहेंगे अपने भारत की समृद्धि से !
कन्हेरी गुफाओं की इस विशिष्ट प्रविष्टि का आभार ।
मार्च 17, 2010 को 8:40 पूर्वाह्न
हाँ हमें भी आपकी यादें आती रहीं जब तब -मगर माफ़ करियेगा पूछ नहीं सके -आशा है श्रीमती सुब्रमन्यन अब ठीक होंगी -उनके स्वास्थ्यलाभ की शुभकामनाएं !
कान्हेरी गुफाएं मैंने भी देख रखी हैं -बड़ा ही जीवंत वर्णनं किया है आपने
मार्च 17, 2010 को 8:57 पूर्वाह्न
इसे पढकर मन में रोमांच दौड़ने लगा है क्योंकि कल ही मैं भी सपरिवार मुंबई जा रहा हूँ और मेरे कार्यक्रम में कन्हेरी भी है. अगर बच्चों का जोर ज्यादा न चला तो.
दो दिन बाद मैं इस आलेख की रौशनी में अपने को वहाँ खड़ा पा रहा हूँ.अद्भुत. ज्ञानवर्धक.
सर हो सके तो मुझे मेल से यहाँ पहुँचने और अन्य बातों के बारे में कोई बेहद ज़रूरी बात हो तो बताएं.
आभार.
मार्च 17, 2010 को 9:01 पूर्वाह्न
आपके दिये गये फोटू देखकर मुझे ऐसा लगता है कि कैमरा अब आंख से भी उन्नत हो गये हैं।
मार्च 17, 2010 को 9:23 पूर्वाह्न
जी हम तो समझे थे कि आप दक्षिण प्रवास पर होंगे. आज पता चला. यात्रा वृतांत बहुत ही सुंडर चित्रों से रोचक शैली मे लिखा गया है.
नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम
मार्च 17, 2010 को 9:50 पूर्वाह्न
आनंद आ गया कन्हेरी की सैर करके।मुम्बई सालो हो गये जाना नही हो पा रहा है और पहले बोरीवली और संजय गांधी नेशनल पार्क जा चुका हूं।उस समय सोचा था कन्हेरी फ़िर कभी जायेंगे और कन्हेरी के दर्शन आज आपने करा दिये।ईश्वर से प्रार्थना करूंगा की वो सब ठीक रखे।
मार्च 17, 2010 को 10:05 पूर्वाह्न
बहुत ही अच्छी जानकरी मिली.
अद्भुत हैं ये गुफ़ाएँ भी.
आश्चर्य होता है इन्हें देख कर कि एक ही पहाड़ से कैसे इतनी अधिक गुफ़ाएँ निर्मित हुई.
सभी कोठरियों के सामने जल प्रवाह..!कितनी अच्छी व्यवस्था की गयी थी.
सभी चित्र बहुत अच्छे हैं.
आज बहुत समय बाद आप को वापस देख अकर अच्छा लगा.
शुभकामनाएँ .
मार्च 17, 2010 को 10:07 पूर्वाह्न
स़्वागत है आपका, उम्मीद है इसी प्रकार और भी रोचक जानकारी
आपसॆ मिलती रहॆगी ।
सादर ।
मार्च 17, 2010 को 12:21 अपराह्न
बहुत दिनों बाद आपका आना हुआ. बहुत ही रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी…
मार्च 17, 2010 को 1:36 अपराह्न
आशा है की अब श्रीमती सुब्रमनियन स्वस्थ होंगी।
हमेशा की तरह जानकारी से भरपूर्ण लेख पढने को मिला।
मार्च 17, 2010 को 2:08 अपराह्न
सब से पहले श्रीमती सुब्रमनियन स्वस्थ के लिये शुभकामनाये, आप का लेख पढा ओर सभी चित्रो को देखा… ओर देखता रह गया, हजारो साल पहले भी तो कोई ऎसी टेकनिक होगी जिस से एक पहाड कए अंदर ही यह सब बनाया गया, ओर अति सुंदर सिस्टम बनाया गया. धन्यवाद
मार्च 17, 2010 को 2:45 अपराह्न
आज बहुत दिन बाद दर्शन दिये। मन खुश हो गया गुफ़ा वर्णन पढकर।
मार्च 17, 2010 को 3:46 अपराह्न
जानकर बेहद रोमांचित हूं. इतनी बार मुंबई जाता हूं मगर ये पता नहीं था कि कन्हेरी इतने पास है. पता चला है कि एक रास्ता थाने की ओर से बनने की प्रक्रिया शुरु हुई है , जहां से कन्हेरी पास पडेगा.
आपका इतने दिनों बाद इस लोकप्रिय ब्लोग पर खुशामदीद!
मार्च 17, 2010 को 3:51 अपराह्न
subemanyan ji,
namaskar
behad rochak jankari ke liye shukriya.
khushi hui yah jankar ki aap jimmedariyon ko nibhate huye ham sabhi ke liye wapas aa gaye hain .
मार्च 17, 2010 को 4:39 अपराह्न
लो जी एक और सुक्रिया
मार्च 17, 2010 को 5:54 अपराह्न
अद्भुद …अद्भुद !!!!
आह… आनंद आ गया….
आपकी अनुकम्पा से घर बैठे हमने इतना सुन्दर ऐतिहासिक स्थल देख लिया और इतना कुछ जान्ने का सुअवसर पाया…
आपका कोटिशः आभार…
मार्च 17, 2010 को 6:20 अपराह्न
बहुत दिन बाद आप के पोस्ट को पढ़ कर बहुत सुखद लगा,आनंद आ गया .
इलाहबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान १९८९ में मैं इन स्थानों पर जा चुका हूँ और केवल अन्वेषण के दृष्टिकोण से .
बहुत बेहतरीन जानकारी आपनें प्रस्तुत की है,धन्यवाद.
मार्च 17, 2010 को 6:26 अपराह्न
lovely post and good job spreading knowledge about history.
मार्च 17, 2010 को 6:56 अपराह्न
आपकी वापसी पर आपका स्वागत है। आशा है कि अब आप नियमित लिख पाएँगे।
यह लेख व चित्र पसन्द आए। कितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं? देखने पर तो असंख्य लग रही हैं। मेरा भी देखने का मन है।
घुघूती बासूती
मार्च 17, 2010 को 8:29 अपराह्न
घुघूती जी,
आप सीढयों को देख कर मत चौंकिए. चित्र में दिख रही सीढियां वास्तव में ऊपर ही ले जाती है. ऊपर ही श्मशान है. हम लोग तो गए ही नहीं. अन्यथा सभी महत्वपूर्ण खण्डों पर आसानी से पहुंचा जा सकता है. हमें यह चित्र मिल गया जिसमे पहाड़ को तराशे जाने का सुन्दर चित्रण था. इसलिए चपका दिया. आपके के पास तो गाडी है. पिकनिक पे निकल जाएँ. अहमदाबाद जाने वाली एक्सप्रेस हाईवे से जा सकते हैं.
मार्च 17, 2010 को 8:36 अपराह्न
बहुत दिन बाद आपका ब्लाग देखा। आपने ब्लाग लिखना छोड दिया था तो हमने भी भ्रमण करना छोड रखा था। आप इतने सुन्दर स्थानों की घर बैठे सैर करवा देते थे। आशा है अब श्रीमती सुब्रमन्यन अब ठीक होंगी -उनके स्वास्थ्यलाभ की शुभकामनाएं ! आप जैसा वर्णन और तस्वीरें और किसी ब्लाग पर नजर नही आयी। अगर शब्दों का आकार बडा कर लें तो पढने मे सुविधा रहे। धन्यवाद बहुत ही रोचक वर्णन है।
मार्च 17, 2010 को 8:58 अपराह्न
हमेशा की तरह अंत तक रोचक लेख , शुभकामनायें !!
मार्च 17, 2010 को 11:49 अपराह्न
बहुत अच्छी जानकारी और उससे भी अच्छी लगी आपकी वापसी। खुश आमदीद…!!!
मार्च 18, 2010 को 6:03 पूर्वाह्न
आभार इस जानकारी और तस्वीरों का.
मार्च 18, 2010 को 5:00 अपराह्न
उम्दा!!!
मार्च 19, 2010 को 8:48 पूर्वाह्न
स्वागत है। लगता है वर्षों के बाद मिल रहै हैं। आशा है भाभीजी पूर्णतया स्वस्थय होंगी।
मार्च 19, 2010 को 7:25 अपराह्न
आपकी श्रीमती जी अब स्वस्थ हो गयीं होंगीं – बहुत बरसों पूर्व, स्कूल की ट्रीप इन्हीं केन्हेरी गुफाओं के भ्रमण में हम लोग शरीक हुए थे उसकी यादें ताज़ा हो गयीं — आप के यात्रा वृन्तांत , हिन्दी ब्लॉग जगत की धरोहर हैं..लिखते रहीये , स्वागतम
– लावण्या
मार्च 19, 2010 को 7:35 अपराह्न
हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक पोस्ट ..आशा है भाभीजी अब अच्छी होंगी ..आपको दुबारा यहाँ देख कर अच्छा लग रहा है.
मार्च 19, 2010 को 10:50 अपराह्न
baut dino bad apki post padhkar bahut achha lga .adrneey bhabhiji ko prnam .
bahut hi thathypoorn jankari aur chitra bhi bahut ache lge .
ham aapke sath gfao me ghoom aaye .
abhar
मार्च 25, 2010 को 12:46 पूर्वाह्न
मुम्बैकर होने के नाते कान्हेरी खूब गया .आपका आलेख पढ़ यादों में खो गया.
मई 2, 2010 को 9:55 अपराह्न
आप यूं ही कुछ और पर्यटन का सुख भी दीजिये हमें
सादर
अगर आपकी नजर में कोई सोरायसिस का मरीज हो तो हमारे पास भेजिए ,हम उसका फ्री ईलाज करेंगे दो महीने हमारे पास रहना होगा
मई 8, 2010 को 11:26 अपराह्न
Hmmm, reading a Hindi blog after much time, very well written and reading Hindi give some extra interest when compared to English. I actually do not know how to write the comment in Hindi and time is short otherwise I would have checked how to do that.
मई 9, 2010 को 12:55 अपराह्न
11 सिर वाले अवलोकितेश्वर देखकर ताला के रूद्र शिव का स्मरण हुआ. मांढल शिव भी याद आए. आपकी प्रस्तुति शैली सचित्र कथा की तरह लगती है. मैं अपनी आंखों से देखी कन्हेरी गुफाओं को लगभग भूल चुका था. इसके साथ धीरे-धीरे जुगाली कर याद सुखद रहा. आपकी शैली लगता है अ-मूवी वृत्त चित्र देख रहे हों. मैं अपनी देखी जगहों को भी आपके नजरिए से फिर-फिर देखना चाहूंगा.
जून 13, 2010 को 5:00 अपराह्न
कन्हेरी के बारे में सुन्दर जानकारी के लिए धन्यवाद.
जून 22, 2010 को 12:49 अपराह्न
मेरे ब्लॉग तक पहुँचने का, साथ ही आपके ब्लॉग तक लिवा लाने का तहे दिल से आभार। आपके यात्रा विवरण साहित्यिक हैं और रोचक भी…मैं पढ़ते रहना पसंद करूँगा।
नवम्बर 17, 2014 को 11:31 पूर्वाह्न
I like to watch this caves.