ब्रह्माण्ड में भ्रमण करना केवल देवताओं या असुरों की मिलकियत नहीं रही. अब तो हम भी कर रहे हैं. ऐसे ही एक भ्रमण में हमारे द्वारा सर्वप्रथम प्रयुक्त कैमरे से मुलाकात हो गयी. मानो उसने हमसे पूछा क्यों मुझसे जुडी कुछ यादें अब भी बची हैं की नहीं? १३ वर्ष की आयु में पिताजी को परेशान कर प्राप्त किया था. एक डब्बा जो फोटू खींचता था. अंग्रेजी में बॉक्स कैमरा कहा जाता था. हमारे पास यही आग्फा का डब्बा था, लेंस और फिल्टर से युक्त. फ्लेश का भी प्रावधान था. कुछ कैमरे पिन होल वाले हुआ करते थे जिनमे लेंस नहीं होते थे.इस कैमरे से जुडी बहुत सारी यादें उछल कूद करने लगीं. उन यादों ने हमें विविश कर दिया की पुराने फोटो अल्बम्स को देखूं. हमारी याद में एक तस्वीर थी. स्वर्गीय गोविन्द वल्लभ पन्त जी का उन दिनों जगदलपुर आना हुआ था. हवाई पट्टी पर हमने भी अपने केमरे के साथ उपस्थिति दे दी थी और बिना किसी बाधा के हवाई जहाज़ और पन्त जी के पास पहुँच गए थे. फोटो खींचने की हमारी सीमाएं थीं. उस केमरे में एक रोल भरने पर केवल आठ चित्र ही लिए जा सकते थे. अतः बहुत सावधानी बरतनी पड़ती थी. हमने भी पूरी शान से चित्र खींचे. शहर में एक मात्र फोटोग्राफर था. नाम था के. नर्सिंग राव. उनका स्टूडियो बस्तर हाई स्कूल जाने वाले रस्ते के बायीं तरफ शुरुआत में ही था. अपनी फिल्म को धुलवाने के लिए हमें उनके पास ही जाना पड़ता था. संयोगवश हमारे एक चित्र में शहर के एक गणमान्य गुजराती व्यापारी द्वारा पन्त जी को माला पहनाते पकड़ लिया गया था . फिल्म की धुलाई के समय या तो उन्होंने देखा या फिर नर्सिंग राव ने उन्हें बताया हो, बहरहाल हमसे उस गुजराती सेठ ने संपर्क किया और उस फोटो और नेगेटिव के एवज में १० फिल्म रोल देने की पेशकश की. हम तो धन्य हो गए क्योंकि एक रोल की कीमत उन दिनों लगभग २.५ रुपये थी.
अपनी पुरानी एल्बम की ढूँढाई में पन्त जी तो नहीं मिले परन्तु जगदलपुर से लगभग ३५ किलोमीटर दूर अवस्थित प्रख्यात चित्रकोट जलप्रपात के नीचे झक मारते एक आदिवासी की तस्वीर मिल गयी. उसे देख हमें लगा की आजकल हम भी यही कर रहे हैं, कुछ अदद टिप्पणियों के लिए.
नवम्बर 26, 2010 को 4:49 अपराह्न
बड़ी शानदार फोटो है..एक जमाने में हमारे पास भी यही कैमरा था.
नवम्बर 26, 2010 को 4:59 अपराह्न
बहुत ही सुन्दर संस्मरण, गुजराती व्यापारी ने सौदा खूब पटाया..
आदिवासी की फ़ोटो अच्छी लगी..
नवम्बर 26, 2010 को 6:34 अपराह्न
ये कैमरा तो वाकई बक्से जैसा ही दिखता है. मैंने ऐसा कैमरा असल लाइफ में इस्तेमाल होते तो नहीं देखा है 🙂
इतने पुराने कैमरे से खींचा गया फोटो है पर फोटो में सारे बेसिक अनुपात एकदम बढ़िया हैं, जैसे कि किसी फोटोग्राफी कोर्स के बाद खींचा गया हो. कुछ और फोटो स्कैन करके डालिए कभी…उन ज़माने के फोटोस में एक अद्भुत आकर्षण होता है.
नवम्बर 26, 2010 को 6:35 अपराह्न
बहुत सुन्दर चित्र है … चित्रकोट जलप्रपात है ही इतना सुन्दर कि शब्दों में वर्णन करना मुश्किल है … मैं सन २००५ में जगदलपुर गया था और चित्रकोट तथा तीरथगढ़ जलप्रपात देखा था ..
नवम्बर 26, 2010 को 6:37 अपराह्न
अरे वाह !
अस्सी के दशक की शुरुआत में मैं भी ऐसे ही एक कैमरे का स्वामी था। अपनी सीमाओं में बहुत बढिया श्वेत-श्याम तस्वीरों को कैद कर लेता था। अपनी पहली पहाड़ों की यात्रा में मैं कश्मीर को कैद कर लाया था। फोटुएं आज भी हैं। ऐसा कोई उपाय है क्या जो उन्हें यहां दर्शाया जा सके ? खोजने पर शायद नेगेटिव भी मिल जाएं। सम्भव हो तो बताईयेगा।
नवम्बर 26, 2010 को 6:38 अपराह्न
बहुत ही रोचक संस्मरण .
अपना पहला कैमरा याद
आ गया. अब पता नहीं
कहां है?
नवम्बर 26, 2010 को 6:47 अपराह्न
@श्री गगन शर्मा:
किसी बेहतरीन स्केनर से स्केन करवा लें.
नवम्बर 26, 2010 को 7:07 अपराह्न
हमारे पिताजी के पास भी ऐसा ही बाक्स कैमरा था जिससे हमारी फ़ोटुये जन्म से उनके आधीन रहने तक खींची गयी. हमारे परिवार की ज्यादातर उस समय की फ़ोटोज इसी बाक्स कैमरे की अभी भी हमारे पास हैं जिन्हे हमने अब स्केन कर लिया है.
बाद में इस कैमरे का कल्याण भी हमने ही करके पेंटेक्स का खरीद लिया था. बहुत सुंदर फ़ोटो है आदिवासी की.
रामराम.
नवम्बर 26, 2010 को 7:11 अपराह्न
ापने पास तो अब तक भी कैमरा नही है। लेकिन आपका कैमरा देख कर अपने भाई का कैमरा याद आ गया। बहुत सुन्दर तस्वीरें हैं। सही मे आप छायाकार बन गये।
नवम्बर 26, 2010 को 7:24 अपराह्न
‘…झक मारते एक आदिवासी की तस्वीर मिल गयी. उसे देख हमें लगा कि आजकल हम भी यही कर रहे हैं, कुछ अदद टिप्पणियों के लिए.’
आपकी इस टिप्पणी पर हँसी नहीं रोक पाया. अच्छा व्यंग्य किया है आपने.
नवम्बर 26, 2010 को 7:28 अपराह्न
सुंदर चित्र. झक मारने के साथ, अकबर-बीरबल का प्रसिद्ध संदर्भ याद आ गया, वरना यह शब्द प्रयोग चौंकाने वाला होता.
नवम्बर 26, 2010 को 7:42 अपराह्न
वाह ! ग़नीमत है कि आपको पिकासा मिला,
-पिकासो नहीं मिले, वर्ना, पता नहीं वे इस चित्र
के साथ कैसा सुलूक करते !
मैंने वर्ष १९७८ में आग्फ़ा क्लिक-IV, खरीदा था ।
अब भी मेरे पास है । लेकिन पता नहीं काम करता
है या नहीं !
अपनी यादें बाँटने के लिये आभार,
सादर,
नवम्बर 26, 2010 को 7:59 अपराह्न
क्या कहने इन चित्रों के ..वाकई लाजवाब ! बस विंटाज लुक ! आपने मुझे क्लिक थर्ड कैमरे की याद दिला आदी जिसे मैं ट्रिक फोटोग्राफी करता था ..कभी देखते हैं यहाँ चेपते हैं !
नवम्बर 26, 2010 को 8:00 अपराह्न
आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
कैमरा उस जमाने का लेटेस्ट माडल ही रहा होगा ! अविरल गरजते कूदते पानी की बौछार के निकट मछलियाँ निकालते बंदे की फोटो भले ही श्वेत श्याम आई हो पर वो लम्हा यकीनन ठहर सा गया है , वो ज़नाब आज भी इन्हीं मछलियों के भरोसे है ! मगर अफसोस कि पानी की धार अब टूट चुकी है !
आपने स्तब्ध रह गए जीवन को एक शक्ल दी है ! पता नहीं और कितने तीर शेष हैं आपके तरकश में ?
[ वैसे आपने उस पच्चीस रुपये का किया क्या ? :)]
नवम्बर 26, 2010 को 8:29 अपराह्न
@अली सय्यद : आभार. हमने उनसे नकद नहीं लिए थे. उन्होंने ही इल्फोर्ड के १० रोल दिए थे.
नवम्बर 26, 2010 को 8:53 अपराह्न
फोटो यकीनन शानदार है.. अब डिजीटल के आने से पुराने कैमरे लगभग बेकार हो गये.. और अब आपको अपनी निपुणता की आवश्यकता नहीं, कितना एपरचर, कितना एक्स्पोजर . सबकुछ अपने आप.
नवम्बर 26, 2010 को 9:12 अपराह्न
तकनीक का कमाल है, पर पुरानी चीजों की तो बस याद ही र्हा जाती हैं।
नवम्बर 26, 2010 को 9:40 अपराह्न
बड़ी पुरानी यादें दिलाई आपने भाई जी ! आभार
नवम्बर 26, 2010 को 9:51 अपराह्न
इस फॊटो क एक सुन्दर शीर्षक देकर किसी प्रतियोगिता मे भेजे जरूर इनाम मिलेगा .
नवम्बर 27, 2010 को 12:12 पूर्वाह्न
इया तरह का बक्सा हमने तो फिल्म्स में ही देखा था ,आज आपके माध्यम से यहाँ यह भी देखने को मिला और इसके रिजल्ट भी .बहुत अच्छी तस्वीर है.
नवम्बर 27, 2010 को 5:56 पूर्वाह्न
इस् खजाने को थोडा और बांटिये!
नवम्बर 27, 2010 को 9:33 पूर्वाह्न
चित्रकोट मस्त लग रहा है।
नवम्बर 27, 2010 को 11:39 पूर्वाह्न
बहुत खूब… और कमेन्ट पर कटाक्ष एकदम फिट है…
नवम्बर 27, 2010 को 12:19 अपराह्न
आप को टिप्पणीयो के लिये झख मारने की क्या आवश्यकता है | आपका लिखा हुआ सारा माल संग्रह योग्य और जानकारियों से परिपूर्ण है | बहुत सुन्दर फोटोग्राफ है |
नवम्बर 27, 2010 को 12:59 अपराह्न
बढ़िया! याद दिलादी कि मैं चित्रकोट और तीरथगढ़ दोनों जल प्रपात कुछेक बार देख आया किन्तु हर बार कुछ दिनों के अपने जगदलपुर निवास के दौरान कभी भी उनकी तस्वीरें नहीं उतारीं…कभी स्कूल के दिनों में मेरे पास भी क्लिक ३ कैमरा (?) हुआ करता था जिसकी बदौलत में ‘चाचा नेहरु’ के एक जन्मदिन पर नेशनल स्टेडियम में छायाकार के समान प्रवेश तो पा लिया किन्तु उनकी तस्वीर चलती खुली गाड़ी होने से साफ़ नहीं आई…
नवम्बर 27, 2010 को 4:46 अपराह्न
सर एक जमाने में इसी तरह के कैमरे से फोटो उतरवा था …था तो नहीं … बहुत बढ़िया कैमरा संस्मरण …बहुत बिंदास प्रस्तुति..आभार
नवम्बर 27, 2010 को 8:52 अपराह्न
सुब्रमणियन साहब,
गज़ब संस्मरण लिखा है। गुजराती सेठ ने सस्ते में सौदा पटा लिया:)
आदिवासी तो क्षुधा पूर्ति के लिये ये खटराग कर्म कर रहा है, हम कर रहे हैं अहम पूर्ति के लिये. ल्हूब सुझाया आपने।
आपकी हर पोस्ट संग्रहणीय है।
आभार स्वीकार करें
नवम्बर 27, 2010 को 9:10 अपराह्न
बेहद ख़ूबसूरत तस्वीर है…बिलकुल एक पेंटिंग की तरह….
कैमरे की तस्वीर भी क्या खूब है….फिल्मो में भी कभी गौर से नहीं देखा…यहाँ देखने को मिल गयी…शुक्रिया
नवम्बर 28, 2010 को 5:49 पूर्वाह्न
प्रभावशाली चित्र….
नवम्बर 28, 2010 को 2:14 अपराह्न
इस सादगी पे कौन न मर जाये अय खुदा , कितने साधारण ढंग से कह दिया कि हम भी आज कल यही कर रहे है। झक मछली को कहते है । मछली कोे भी पता नहीं होगा कि उसका एक नाम झक भी है। 10 रौल के बदले में जब वे तस्वीर ले जाचुके थे तो फिर आपके एल्बम में कहां से मिलती। पुराने अल्बम देखने में एक आनन्द की अनुभूति तो होती है चाहे अपने व्दारा खीचे हुये दूसरों के फोटो या किसी के व्दारा खीचा गया अपना फोटो
नवम्बर 28, 2010 को 2:37 अपराह्न
@Brijmohan Shrivastav:
आभार. पन्त जी को माला पहनाते हुए उस गुजराती सेठ ने केवल अपनी फोटो ही ली थी. बाकी तो अपने पास ही थे.
नवम्बर 28, 2010 को 2:56 अपराह्न
बहुत सुन्दर चित्र, श्वेत श्याम ही रहने दें।
नवम्बर 28, 2010 को 4:15 अपराह्न
अरे आपने तो पुरानी यादें ताज़ा करा दीं .उस ज़माने में यह कैमरा होना एक असेट था और बच्चों के बीच स्टेटस सिम्बल .अपने बाबा से बहुत ही चिरौरी कर करीब करीब आपकी ही उम्र में पाया था मेरा वह पहला कैमरा .गाँव जाने पर तो उसके चलते जो इज्जत ,खास कर शादी वगैरह में मिलती थी की VIP स्टेटस महसूस करता था .आपके जैसा भाग्यशाली नहीं था न लाभ कमाने का ज्ञान तो सिर्फ खर्च के पैसे मिल जाते थे . हाँ उसमे अपनी पसंद के भी चित्र ले लेता था उसी खर्च में .शौक तो था पर उसके लिए होने वाले खर्च को आपकी ही तरह मैं भी ‘ मैनेज ‘ करने में परेशान रहता था .
आज आपके लिखने का अलग ही मज़ा मिला 🙂 .
नवम्बर 28, 2010 को 6:19 अपराह्न
यह चित्र तो गज़ब का है। और कैमरा? क्या सुन्दर याद दिला दी आपने बीते समय की!
नवम्बर 28, 2010 को 9:16 अपराह्न
आपका कैमरा देखकर मुझे भी पुरानी बातें याद आ गईं। जब हम मिडिल स्कूल में थे तो कक्षा की ग्रुप फोटो लेने वाला जो फोटोग्राफर आया था उसके पास बहुत बड़ा लकड़ी के बाक्स वाला कैमरा था। अब तो मोबाइल में सब कुछ है।…चित्र सचमुच बेशकीमती है।
नवम्बर 28, 2010 को 9:44 अपराह्न
आग्फा वाकई बहुत अच्छा था. और आप को भी आखिर पता चल ही गया कि आप क्या कर रहे हैं (?).
वैसे वो आदिवासी टिप्पणी के लिये कुछ ना करता .
अच्छी प्रस्तुति.
नवम्बर 28, 2010 को 11:29 अपराह्न
आग्फा का कैमरा शुरू शुरू में हमारे पास भी था । पर झक मारते हुए आदिवासी का चित्र बहुत अच्छा लगा ।
नवम्बर 29, 2010 को 6:06 पूर्वाह्न
अच्छे व्यापारी हैं 🙂
नवम्बर 29, 2010 को 9:34 पूर्वाह्न
वाह!
नवम्बर 30, 2010 को 6:03 अपराह्न
पहले हमारे पास भी अग्फा ही था. उसके फोटो अभी भी एल्बम में लगा कर रखे हैं. लेकिन बच्चों को दिखाने में भी शर्म अति है क्योंकि वे छोटे से चित्र खोजना पड़ता है.
दिसम्बर 7, 2010 को 10:19 पूर्वाह्न
१३ वर्ष की उम्र से फोटोग्राफी का शौक और एक अदद कैमरे के मालिक भी रहे आप.
आदिवासी का चित्र अच्छा लिया हुआ है. जलप्रपात पिकासा ने रंगीन कर दिया …
[सोचें तो…ये आदिवासी इस चित्र के बदले आप को क्या देता?मछलियाँ?]
– यादें अनमोल होती हैं ..