अलग अलग समुदायों यथा यहूदी, पारसी, सौराष्ट्री, बिश्नोई, ईसाई, माप्पिला आदि के बाद अब बारी है उन तामिल भाषी ब्राह्मणों की जो केरल में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं.बस केवल इतना कि वे कहा से आए और कहाँ कहाँ गये. “कुत्ते भटक रहे हैं अपनी दुम की तलाश मे”, यह आपने कभी सुना है? पता नहीं अपनी वैदिक मंत्रों की तर्ज पर किस ने यह पेरोडी बनाई. मेरी बिटिया का तो कहना है क़ि यह तो आप की ईज़ाद है. पता नहीं.
दिल्ली सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मालिक कफूर (चाँद राम) ने १४ वीं सदी के प्रारंभ में मदुरै पर आक्रमण किया और इस शहर पर कब्ज़ा कर लिया था. इतिहास में संभवतः यही वह समय है जब उस अंचल के ब्राह्मण, जो अग्रहारमों में रहा करते थे, भयभीत हो गए और हिन्दू राज्यों में जाकर शरण लेने की सोची होगी. तमिलनाडु से सामूहिक पलायन कर जिन लोगों का केरल आना हुआ था उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ और उन्हें शहर या गाँव के एक अलग भाग में बसाया गया. ऐसी बसावट को भी अग्रहारम या ग्रामं कहा गया. एक छोर पर या बीच में शिव का मंदिर और अगल बगल उत्तर से दक्षिण की ओर कतारों में बने लगभग १०० घर, एक दूसरे से जुड़े हुए, आजकल के रो हौसेस की तरह. दूसरी तरफ ऐसे भी लोग थे जो तामिलनाडू में ही रह गए परन्तु कालांतर में इक्के दुक्के परिवार केरल में अपनी किस्मत आजमाने के लिए चले आये और अलग अलग गाँवों में बसते गए. उनके घरों को मठं कहा जाता है. इस तरह का विस्थापन लगभग २५० वर्ष पहले ही हुआ था. इस दूसरे प्रकार के लोग अधिक खुले विचारों के हैं क्योंकि स्थानीय लोगों के वे अधिक करीब हैं जिसके कारण वे स्थानीय संस्कृति और परम्पराओं में रच बस गए. चेन्नई के करीब दक्षिण चित्रा अग्रहारम (संरक्षित नमूना) (विकिमीडिया कामंस)
अग्रहार या अग्रहारम की बात चली है. विशुद्ध रूप से यह ब्राह्मणों की ही बस्ती हुआ करती थी और इसका उल्लेख ३री सदी संगम काल के साहित्य में भी पर्याप्त मिलता है. इन्हें चतुर्वेदिमंगलम भी कहा गया है. अग्रहार का तात्पर्य ही है फूलों की तरह माला में पिरोये हुए घरों की श्रृंखला. वे प्राचीन नगर नियोजन के उत्कृष्ट उदाहरण माने जा सकते हैं. इन ग्रामों (अग्रहारम) में रहने वालों की दिनचर्या पूरी तरह वहां के मंदिर के इर्द गिर्द और उससे जुडी हुई होती थी. यहाँ तक कि उनकी अर्थ व्यवस्था भी मंदिर के द्वारा प्रभावित हुआ करती थी. प्रातःकाल सूर्योदय के बहुत पहले ही दिनचर्या प्रारंभ हो जाती थी. जैसे महिलाओं और पुरुषों का तालाब या बावड़ी जाकर स्नान करना, घरों के सामने गोबर से लीपकर सादा रंगोली डालना, भगवान् के दर्शन के लिए मंदिर जाना और वहां से वापस आकर ही अपने दूसरे कार्यों में लग जाना. कलपाथी अग्रहारम, पालक्काड (एक धरोहर ग्राम) चित्र: रामकृष्णन
यह रामनाथपुरम अग्रहारम पालक्काड में है
एक बालिका अपने घर के सामने चांवल के सूखे आटे से रंगोली डालते हुए
प्रति माह मंदिर में कोई न कोई उत्सव होता जब मंदिर के उत्सव मूर्ती को रथ में लेकर घरों के सामने लाया जाता जहाँ लोग जाकर नैवेद्य के लिए कुछ न कुछ पकवान चढाते, माथा टेकते और प्रसाद ग्रहण करते. दुपहर को पूरे ग्राम वासियों के लिए मंदिर की ओर से भोज (भंडारा) की व्यवस्था रहती. मंदिर के पास इफरात जमीन हुआ करती थी जिसके आमदनी से उनका खर्चा चला करता था.
परवूर (कोच्ची) का एक अग्रहारम
परवूर (कोच्ची), अग्रहारम के अन्दर सामुदायिक भवन
अग्रहारम के चारों तरफ दूसरे जाति के लोग भी बसते थे. जैसे बढई, कुम्हार, बसोड, लोहार, सुनार, वैद्य, व्यापारी और खेतिहर मजदूर आदि. मंदिर को और वहां के ब्राह्मणों को भी उनकी सेवाओं की आवश्यकता जो रहती. ब्राह्मणों के स्वयं की कृषि भूमि भी हुआ करती थी या फिर वे पट्टे पर मंदिर से प्राप्त करते थे.मंदिर की संपत्ति (मालगुजारी) की देख रेख और अन्य क्रिया कलापों के लिए पर्याप्त कर्मी भी हुआ करते थे जिन्हें नकद या वस्तु (धान/चावल) रूप में वेतन दिया जाता था. मंदिर के प्रशासन के लिए एक न्यास भी हुआ करता था. कुल मिलाकर मंदिर को केंद्र में रखते हुए एक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था. मट्टानचेरी (कोच्ची) के अग्रहारम का प्रवेश द्वार (इन्होने तो किलेबंदी कर रखी है!)
मट्टानचेरी (कोच्ची) का अग्रहारम
मूलतः तामिलनाडु के कुम्बकोनम , तंजावूर तथा तिरुनेलवेली से भयभीत ब्राह्मणों का पलायन हुआ था. बड़ी संख्या में वे लोग पालक्काड़ में बसे और कुछ कोच्चि के राजा के शरणागत हुए. तिरुनेलवेली से पलायन करने वालों ने त्रावन्कोर में शरण ली और बस गये. उन्हें राज कार्य, शिक्षण आदि के लिए उपयुक्त समझा गया और लगभग सभी को कृषि भूमि भी उपलब्ध हुई. केरल आकर उन्होने अपने अग्रहारम बना लिए और अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को संजोये रखा. हाँ उनके आग्रहाराम में शिव मंदिर के अतिरिक्त विष्णु के लिए भी दूसरे छोर पर मंदिर बने. अधिकतर विष्णु की कृष्ण के रूप में पूजा होती है.
अब जमाना बदल गया है. आधुनिकता के चक्कर में कई घरों को तोड़कर नया रूप दे दिया गया है. इन ग्रामों की आबादी भी घटती जा रही क्योंकि घरों के युवा रोज़ी रोटी के चक्कर मे देश में ही अन्यत्र या विदेशों में जा बसे हैं और यह प्रक्रिया जारी है. अतः कई मकान स्थानीय लोगों ने खरीद लिए हैं. जो ब्राह्मण परिवार बचे हैं उनमे अधिकतर वृद्ध ही रह गये हैं. पालक्काड के आसपास अब भी बहुत से अग्रहारम हैं जहाँ उत्सव आदि आधुनिकता के आगोश में रहते हुए भी परंपरागत रूप में मनाये जाते हैं. दीपावली के बाद नवम्बर/दिसंबर में एक तमिल त्यौहार पड़ता है जिसे कार्थिकई कहते हैं. यह कुछ कुछ भाईदूज जैसा है. हर घर के सामने रंगोली तो बनती ही है परन्तु शाम को उनपर नाना प्रकार के पीतल के दिए जलाकर रखे जाते हैं. यही एक अवसर है जब लोगों के घरों के बाहर दिए जलते हों. ऐसा दीपावली में भी नहीं होता.
मट्टानचेरी (कोच्ची) अग्रहारम में कार्थिकई के उपलक्ष में दीप जलाये गए हैं
समाचार पत्र “हिन्दू” के मेट्रो प्लस से साभार
अगस्त 20, 2011 को 8:46 पूर्वाह्न
साफ़ सुथरे घरों को व्यवस्थित ढंग से बनाया जाता था वहां ….बहुत सुंदर रही यह जानकारी ! आपका आभार
अगस्त 20, 2011 को 8:47 पूर्वाह्न
तामिल ब्राह्मण समुदाय के केरल आ बसने और उनकी सामाजिक आर्थिक हालातों को आपने अदभुत रूप से संजोया है, यह सब कुछ पहली बार ज्ञात हुआ. इस नायाब जानकारी के लिये आपका कोटिश: आभार.
रामराम.
अगस्त 20, 2011 को 9:07 पूर्वाह्न
तिरुवनंतपुरम में ऐसे ही एक अग्रहारम में मुझे जाने का अवसर मिला था. यहाँ अधिकतर अय्यर ब्राह्मण ही रहते हैं. घर में आते-जाते वे कृष्ण की पूजा करते हैं. उनकी जीवन शैली मुझे बहुत अच्छी लगी. उनके जीवन में पवित्रता का प्रतिशत हम उत्तर भारतीय लोगों से कहीं….कहीं अधिक है. बेहतरीन पोस्ट और नई जानकारी देने के लिए आभार.
अगस्त 20, 2011 को 9:26 पूर्वाह्न
अच्छा लगा इनके बारे में जानकर…
गाँव से पलायन की दर बहुत तेजी से बढी है…मेरे घर के तरफ तो पूरे गाँव जैसे खंडहर बन गये हैं…कोई रहने वाला नहीं।
अगस्त 20, 2011 को 10:25 पूर्वाह्न
बहुत सुंदर पोस्ट……. बिलकुल नई जानकारी है मेरे लिए तो….. आभार
अगस्त 20, 2011 को 10:54 पूर्वाह्न
क्यूंकि हम नयी दिल्ली में ‘४० से ही केन्द्रीय सरकारी मकान में रहते आ रहे थे, तो हमें सभी प्रदेशों के लोगों को देखने और उनके बच्चों के साथ खेलने और विभिन्न भाषा सुनने का मौका मिला, तो दूसरी ओर ताम ब्रह्म का प्रति दिन सूखे चावल के आटे से घर के बाहर रंगोली करना; साम्भर भात / मोर भात के अतिरिक्त इडली डोसा के बारे में ज्ञान तो हुआ ही, किन्तु सबसे विचित्र लगा था उनका दिन में विवाह संपन्न करना (यद्यपि आज हमारे समाज में भी यह अन्य कई कारणों से यदा कदा मनाया जाने लगा है),,, जबकि हम अन्य सभी विवाहों का रात्री काल में संपन्न किया जाना देखते आये थे…
जो अब अनुमान लगाया जा सकता है दक्षिण दिशा के राजा सूर्य को और उत्तर दिशा के राजा चन्द्र को हिन्दुओं द्वारा माना जाना, इस लिए उनकी उपस्तिथि में संपन्न किया जाना आवश्यक, क्यूंकि मान्यता है कि जोड़े आकाश में, स्वर्ग में, बनते हैं और धरती पर गुड्डे-गुडिया के विवाह समान, विष्णु-लक्ष्मी विवाह समान मनाये जाते हैं!… और दूसरा आश्चर्य था उनका दिवाली के दिन सुबह सवेरे पटाखे बजा हमारी नींद तोडना 🙂 वे कार्तिकेय अर्थात मुरुगन को भौतिक संसार में धन-धान्य प्रदान करने वाला मानते हैं, और उसके अनुज गणेश को दोनों रिद्धि – सिद्धि पति…
अगस्त 20, 2011 को 11:04 पूर्वाह्न
ढेर सारी जानकरी के साथ रोचक पोस्ट,अच्छी लगी…
अगस्त 20, 2011 को 11:41 पूर्वाह्न
प्रकृति में अनेक संकेत हैं, जैसे कुत्ते की दुम में खुजली होती है तो वो गोल गोल घूमता चला जाता है (और कई बार लेटने, स्थान ग्रहण करने, से पहले भी) – ‘सागर मंथन’ की मंथनी समान – क्यूंकि उसका मुंह पूंछ तक नहीं पहुँच पाता…(कुत्ते को यमराज रूप में शिव का मित्र माना जाता है)…
मानव रूप में पहंचने तक किन्तु पूंछ घिस जाती है… और मेरुदंड के सबसे नीचे मूलाधार चक्र में गणेश अर्थात मंगल ग्रह का सार माना जाता है, और गणेश की माता पार्वती (चन्द्रमा) का सार सहस्रार चक्र अर्थात सर में, और अन्य छह चक्रों में विभिन्न ग्रहों का सार माँ-बेटे के बीच बाधा समान उसे असहाय बनाते…
माता-पुत्र की एक दूसरे से दूरी मिलन की इच्छा को तीव्र करती है, जिसे जोगियों ने ‘कुंडली जागरण’ ही केवल एक मार्ग जाना, अर्थात असहाय प्रतीत करते बच्चे को जगा (जैसे जामवंत का हनुमान को त्रेता में माता सीता को अपने प्रभु राम के लिए खोज) उसे मार्ग में उपस्थित सब बाधाओं को पार कर सब चक्रों में भंडारित शक्ति को मस्तिष्क में पहुंचाना और परम ज्ञान पाना…
अगस्त 20, 2011 को 1:21 अपराह्न
सभी चित्र बहुत सुंदर, ओर जानकारी तो सोने पर सुहागा हे, वैसे मै भी पिता जी के संग बचपन मे कई राज्यो मे रहा हुं इस लिये बहुत सी भाषाये, ओर वहां के लोगो के रहन सहन के बार भी पता चलता रहा, लेकिन इतनी गहरी से आप से जाना, धन्यवाद इस बहुत उपयोगी लेख के लिये
अगस्त 20, 2011 को 4:37 अपराह्न
Agraharam houses have less privacy and lack proper ventilation. It is basically community living. Inmates were supposed to be “living examples” of the theory of simple living and high thinking. No wonder agraharams in Palakkad have produced about a dozen ‘Padma’ awardees including Padma Vibhushan and Padma Shri.
Very good post.
अगस्त 20, 2011 को 5:38 अपराह्न
शौकिया लेकिन शोधपूर्ण, सो रोचक भी. दुम की तलाश भी खूब है.
अगस्त 20, 2011 को 5:44 अपराह्न
इतिहास के अध्यायों पर संस्कृति का लेख।
अगस्त 20, 2011 को 7:29 अपराह्न
आपकी पोस्टें उलझन में डाल देती हैं। तय करना मुश्किल हो जाता है कि किसकी प्रशंसा की जाए – जानकारियों की या चित्रों। बहुत ही रोचक और बहुत ही मनोरम। ‘दक्षिण चित्रा’ देख चुका हूँ। प्रशंसनीय प्रयास है।
अगस्त 20, 2011 को 10:08 अपराह्न
जानकारी बढ़ाने के लिए बहुत धन्यवाद,आपकी पोस्ट तो मेरे लिए संग्रहणीय होती हैं,आभार.
अगस्त 21, 2011 को 12:47 पूर्वाह्न
ॐ
अग्रहारम , ब्राह्मणों का केरल प्रदेश मे आकर बस जाना, उनकी सामाजिक व्यवस्था , गृह निर्माण , मंदिर का हरेक के जीवन मे मुख्य स्थान ,
भारत के गौरवशाली अतीत मे खींच ले गया सब –
बेहद सुन्दर चित्रोँ के साथ , ये जानकारियाँ पढने को मिलीं – अतः धन्यवाद –
आप अपनी प्रविष्टियो को पुस्तक रूप मे कब छपवा रहें हैं ? अवश्य ही शीघ्र , छपवाने का प्रबंध करें –
स स्नेह,
– लावण्या
अगस्त 21, 2011 को 1:01 अपराह्न
आपकी पोस्ट पढने के बाद अब हमें अपनी कालोनी के घर भी अग्रहारम नज़र आने लगे हैं! हाँ, पास ही एक मंदिर भी है!
अगस्त 21, 2011 को 2:28 अपराह्न
@संपत कुमार जी:
“Agraharam houses have less privacy and lack proper ventilation ” यह धारणा सही नहीं प्रतीत होती. हर घर के अन्दर घुसते ही एक खुला दालान होता है (open to sky ).
अगस्त 21, 2011 को 4:22 अपराह्न
@ पोस्ट ,
बड़ी सुन्दर पोस्ट है ! साधुवाद !
@ सामुदायिक बसाहट ,
वहां अग्रहारम मालिक काफूर के भय कारण नियोजित ढंग से बसे / बसाये गये यहां जगदलपुर में आप खुद भी रहे हैं सो जानते ही हैं कि भैरमदेव वार्ड उर्फ उडिया पारा उर्फ ब्राह्मण पारा राजा की कृपा / स्नेह से और कई गाँव में ३६० घर आरण्यक ब्राह्मण परिवारों की बसाहट , इसके अतिरिक्त रायपूर जैसी बस्ती में ब्राह्मण पारा भी , ज़रा गौर से सोचा जाए तो पूरे देश में ब्राह्मणों की इस सामुदायिक एकजुट बसाहट का कारण कोई एक नहीं है ना ही केवल विजेता राजा का भय और ना ही स्वागतकर्ता राजा का प्रेम / कृपा / स्नेह या फिर कुछ और !
सच तो ये है कि हर धर्मी समुदाय और चतुरवर्णी व्यवस्था के अंग अपने से विषम के विरुद्ध अपने एक्य को बनाये रखने और स्वयं के समुदायगत अस्तित्व की सुरक्षा और संरक्षण के लिहाज़ से बस्तियां बसाते रहे हैं !
कहने का आशय ये है कि परंपरागत भारत में जातीय / वर्णगत / धार्मिक साम्य और विषमता , जनसंख्या की बसाहट के पैटर्न तय करने का मुख्य आधार रहा है !
बसाहट का नियोजन / स्वच्छता वगैरह वगैरह सम्बंधित समाज /समुदाय की व्यवसायगत / आर्थिक संस्थिति तथा सामाजिक सांस्कृतिक विशेषताओं /हैसियत का उद्घाटन करता / करती है !
अगस्त 21, 2011 को 7:01 अपराह्न
@ अली सैय्यद:
आपकी बातों में बहुत ज़्यादा दम है और मान्य भी. मालिक काफूर के आक्रमण के पूर्व भी तामिलनाडू में ब्राह्मण अग्रहारों में ही रहा करते थे. मैंने यह स्पष्ट नहीं किया था. ३ री सदी में अग्रहारों के अस्तित्व के बारे में बता कर और उनके पलायन की तिथि को देने के बाद हमने मान लिया था कि पाठक समझ ही रहे होंगे. परंतु आपने जिन बातों की और ध्यान आकर्षित किया है उससे लेख में कुछ शंशोधन की आवश्यकता महसूस कर रहा हूँ.
अगस्त 23, 2011 को 3:15 पूर्वाह्न
कुछ ऐसी बातों से परिचय हुआ जो पहले नहीं सुनी थीं..
अगस्त 23, 2011 को 7:21 पूर्वाह्न
आपकी लेखनी संस्कृति ,इतिहास ,स्थापत्य -कला चित्रण सभी को एकसार समेटती चलती है -बिलकुल विशिष्ट और चिरस्थायी छाप छोड़ने वाली -अग्रहरी ब्राह्मणों का परिचय देती यह पोस्ट भी नायाब है !
अगस्त 23, 2011 को 3:38 अपराह्न
केरल घूमने का अवसर अभी मिला नहीं है,इसलिये मेरे लिये यह जानकारी बिल्कुल नयी है . चित्र से लेख और रोचक हो जाता है.अपने लेख पर आमंत्रित कर्ने के लिये आभारी हूँ !
अगस्त 23, 2011 को 4:25 अपराह्न
केरल घूम आया हूँ. बहुत पसंद आया था.आपसे अच्छी जानकारी मिली. तस्वीरें बहुत सुन्दर हैं. आभार.
अगस्त 23, 2011 को 6:52 अपराह्न
मन में एक इच्छा है कि ऐसी ही स्थान पर जा कर रहूं। न ज्यादा भीड़-भाड़, न शोर-शराबा, ना अफरा-तफरी, शांत-सकून भरी जगह।
अगस्त 23, 2011 को 7:41 अपराह्न
Nice
अगस्त 23, 2011 को 8:38 अपराह्न
मुझे तो माइग्रेसन का सामाजिक सन्दर्भ स्पष्ट होता दीख रहा है .
अगस्त 23, 2011 को 10:28 अपराह्न
आपकी पोस्ट्स हमेशा ज्ञानवर्धन करती हैं, वो भी सरस तरीके से। एक शब्द में कहें तो ’इन्फ़ोटेनमेंट।’ अपने ही देश के सुदूर हिस्से में रचे बसे एक अलग ही समाज और जीवन शैली का परिचय हमें घर बैठे मिलता है, आभार स्वीकार करें।
राहुल सिंह जी से एक बार बात चली तो उनका कहना था कि आपका ब्लॉग सार्थक ब्लॉगिंग का पर्याय है। यूँ लगा था, मेरे अपने ही विचारों को राहुल सर ने एक जुमला दे दिया हो।
नरेन्द्र चंचल का गाना याद आता है, ’मेरी प्यास बढ़ गई है, तेरी अंजुमन में आके।’
अगस्त 23, 2011 को 11:06 अपराह्न
beautifull & interesting 🙂
अगस्त 23, 2011 को 11:32 अपराह्न
भरपूर मेहनत के साथ लिखी हुई ज्ञानवर्धक पोस्ट |
मैंने अपनी केरल और तमिलनाडु यात्रा के समय महसूस किया की यहाँ मन्दिरों पर ही जन जीवन का अधिकांश समय और आस्था सर्वोपरी है |
आपकी हर पोस्ट कोई भी विषय की होती है अपने आप में सम्पूर्ण होती है |लावण्याजी की बात ही मै भी कहना चाहूंगी |
अपनी केरल यात्रा के दौरान मुझे सबसे अच्छा बेक वाटर में बने घर लगे समयाभाव के कारण ज्यदानजदीक से उनके जीवन शैली अदि के बारे me नही जान सके अगर आप कुछ अन्कारी दे सके तो कृपा होगी |
धन्यवाद |
अगस्त 24, 2011 को 1:04 अपराह्न
बहुत अच्छी post और कुछ पलों को लगा कि ऐसे किसी स्थान पर हम भी थोडा समय बीता आये.आज के आधुनिक समय में भी वहाँ के लोग पुरानी परम्पराओं को जीवित रखे हुए हैं तो उन्हें मेरा सलाम!मुझे तो कल्पना कर के ही बहुत अच्छा लग रहा था कि हर घर के बाहर रंगोली ,खुला सा आँगन ,साफ़ स्वच्छ बहती हवा,चूल्हों पर पकता खाना,कुएँ से निकालते मीठा पानी….कोई टी वी कंप्यूटर नहीं ,मोबाइल कि घंटियों का शोर नहीं .. ऐसे घर और सभी अडोस पड़ोस एक समुदाय की भांति …यक़ीनन उन दिनों अधिक मानसिक सुख शांति रही होगी जो आज के आधुनिक उपकरण और सुख सुविधाएँ नहीं दे पातीं…सुन्दर चित्र..अनूठी जानकारियाँ मिलीं..आभार.
अगस्त 24, 2011 को 4:16 अपराह्न
रोचक जानकारी. लेकिन सामुदायिक बसावट की बात केवल ब्राह्मणों पर ही लागू नहीं होती. हमारे उत्तर भारत में इन्हें अग्रहार तो नहीं कहा जाता, लेकिन गांवों में अलग-अलग जातियों के अलग-अलग टोले होते हैं. टोले का अर्थ कुछ और नहीं, केवल जाति विशेष का सामुदायिक आवासन है. मसलन हर गांव में आपको बभनौटी (ब्राह्मणों का टोला), ठकुराना या बबुआन (क्षत्रियों का टोला), कुर्मियाना (कुर्मियों का टोला), मियाना (मुसलमानों का टोला) …. आदि मिल जाएंगे. इसके मूल में शायद एक कारण यह भी रहा हो कि एक व्यवसाय से जुड़े लोग एक समुदाय में रहते हुए व्यावसायिक दक्षता का आसानी से विकास कर लेते रहे हों.
अगस्त 24, 2011 को 6:19 अपराह्न
अग्रहार, चतुर्वेदी मंगलम जैसे शब्द इतिहास की पढाई के दौरान दक्षिण के इतिहास और ख़ास कर वहाँ के कुछ शिलालेखों के सन्दर्भ में पढ़े थे जो अब स्मृतियों में काफी धुंधला भी गए हैं.(वैसे तब भी कहाँ कायदे से पढ़ पाए थे:))पर यहाँ इन्हें फिर से और इस विशद,सर्वथा नए रूप में पाकर काफी अच्छा लगा.साधुवाद.
अगस्त 24, 2011 को 11:10 अपराह्न
एक बार पुनः महत्वपूर्ण जानकारी. ब्राह्मणों की मंदिर आधारित कृषि अर्थवयवस्था और भी कई भागों में देखी गई है. आभार और स्वागत.
अगस्त 26, 2011 को 9:36 पूर्वाह्न
आपसे हमेशा ज्ञान मिलता है। आभार।
सितम्बर 17, 2011 को 10:43 पूर्वाह्न
Nice one, My house is just a few yards from the Kochi agraharam. As I started reading your post that was what came to my mind. I have also written a blog on Kalpathi heritage village. Pics are also there. thanks. I can speak and read Hindi quite well but I feel more comfortable with English writings.
दिसम्बर 15, 2013 को 6:52 अपराह्न
As the Editor of the bi-lingual monthly magazine Brahmintoday, i wish to thanks the auther for this blig. pl visit brahmintoday.org to know more. also send such articles preferably in English to us to reach more people
vasan
दिसम्बर 16, 2019 को 6:43 अपराह्न
बहुत ही अच्छी जानकारी, धन्यवाद।