पूर्व में काँचीपुरम के बारे में बताते समय शायद हमने इस बात का भी जिक्र किया था कि यहाँ नगर दो भागों में बंटा है, एक शिव कांची दूसरा विष्णु कांची. इन दोनों समुदायों में प्रारंभ से ही होड़ चली आ रही है और अकसर ही आपस में उलझते रहे हैं. शासकों के लिए भी धर्म संकट की स्थिति बनती थी. तुष्टिकरण की राजनीति तब भी विद्यमान थी. पल्लवों ने कैलाशनाथ का शिव मन्दिर जब 8 वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में बनवाया तब वैष्णवों ने अपने आपको राजा द्वारा उपेक्षित माना होगा. पल्लव नरेश नंदिवर्मन- II (732 – 796), जो स्वयम एक विष्णु भक्त था, ने एक विष्णु मन्दिर बनवा कर वैष्णवों के असंतोष का शमन किया. इस मन्दिर को ही आजकल वैकुंठ पेरुमाल मन्दिर कहते हैं. साहित्यिक संदर्भों में इस मन्दिर का उल्लेख “परमेश्वरा विन्नगारम” मिलता है. बनावट में यह कैलाशनाथ शिव मन्दिर से मेल खाता है. पल्लवों के द्वारा प्रारंभ में बनवाये गए किसी भी मन्दिर में प्रवेश के लिए राजगोपुरम की व्यवस्था नहीं थी.
नंदिवर्मन से जुड़ी एक रोचक पहलू यह भी है कि वह् एक आयातित राजा था. उसकी कहानी कुछ इस प्रकार है. सन् 730 के लगभग परमेश्वरवरमन – II की मृत्यु हुई. वह् निस्संतान था. तकनीकी दृष्टि से पल्लव राज वंश का अंत ही हो गया था. इस स्थिति का साम्राज्य के दुश्मनों द्वारा फायदा उठाया जा सकता था. इसी भय से तत्कालीन सेनापति उदयचंद्र ने सेना के दीगर प्रमुखों (दंड्नायक), बुद्धि जीवियों, प्रमुख व्यापारियों आदि से सलाह मशविरा किया. आम सहमति से एक मिला जुला प्रतिनिधिमंडल कंबोज (कम्बोडिया) के लिए रवाना हो गया. उन दिनों कंबोज में कद्वेसा हरि वर्मा नामका राजा राज करता था जो मूलतः भारतीय पल्लव राजवंश के एक दूसरी शाखा से था. उसके चार पुत्र थे. प्रतिनिधिमंडल ने राजा के पुत्रों में से किसी एक को काँचीपुरम की गद्दी संभालने के लिए आमंत्रित किया. चारों पुत्रों में से तीन ने तो इनकार कर दिया परन्तु चौथे पुत्र पल्लवमल्ल परमेश्वर (जो नंदिवर्मन के नाम से जाना जाता है) ने सहमति दे दी और प्रतिनिधिमंडल के साथ भारत आ पहुँचा था.
मन्दिर परिसर में प्रवेश के लिए एक द्वार युक्त सीधा सपाट मंडप है. एक और मंडप अन्दर है जिसके आगे मुखय मन्दिर. अन्दर आप पायेंगे कि चारों तरफ़ पल्लवों के विशिष्ट शैली में बने खम्बों पर टिका गलियारा है. दीवारों पर सैकड़ों आकृतियाँ द्रिश्टिगोचर होती हैं. ये सब के सब पत्थर के नहीं लगते. इनमें से कई स्टुक्को (गचकारी से सज्जित) कारिगरि लगती हैं और इसलिए इनका अत्यधिक क्षरण हुआ है. पल्लवों और चालुक्यो के बीच हुवे युद्धों को दर्शाया गया है और नंदिवर्मन के राज्याभिषेक आदि का भी चित्रण है. अधिक पढ़ें लिखे लोग दीवारों में भागवत तथा वैष्णव धर्म के गूढ़ भावों को पाते हैं. गर्भ गृह के चारों तरफ़ परिक्रमा पथ है. गर्भ गृह के तीन तल हैं भूतल में बैठे हुए विष्णु की प्रतिमा है. तमिलनाडु पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व निदेशक श्री आर. नागस्वामी के मतानुसार यह मूर्ति वास्तव में श्री राम जी की है क्योंकि गर्भ गृह के प्रवेश द्वार के बाईं तरफ़ के खम्बे में बाली और सुग्रीव को युद्ध करते दर्शाया गया है. प्रथम तल पर मूर्ति शयन मुद्रा में है और दूसरे तल में खड़ी प्रतिमा है. प्रथम तल में लेटी हुई प्रतिमा के दर्शन केवल एकादशी के दिन ही सुलभ होती है. दूसरा तल तो पहुँच के बाहर ही रखा गया है. ऊपर जाने और उतरने के लिए अगल बगल दो सीढ़ियाँ बनी है जो बाहर से दिखाई नहीं देतीं. वैष्णव पंथियों के लिए यह मन्दिर बहुत ही महत्व रखता है क्योंकि यह भी 108 दिव्य स्थलों में एक है. हालाँकि यह मन्दिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है परन्तु यहाँ नियमित पूजा अर्चना होती है तथा गर्भगृह पंडितों के कब्जे में है.
इस मन्दिर के साथ एक और अजीबो गरीब बात जुड़ी है. मन्दिर के बगल में एक मस्जिद दिखाई देगी जिसे नवाब सदातुल्लाह (मुहम्मद सय्यद) (1710 – 1732) ने बनवाया था. मन्दिर के तालाब का ही इस्तेमाल मस्जिद वाले भी करते थे. इस तरह भाइ चारे की एक मिसाल कायम की गयी थी परन्तु दुर्भाग्य से तालाब सूखा पड़ा है.
इस मन्दिर के गूढ़ रहस्यों को जानना हो तो यह किताब बड़े काम की होगी:
Dennis Hudson : The Body of God: An Emperor’s Palace for Krishna in Eighth-Century Kanchipuram , Oxford University Press, 2008
जून 18, 2013 को 7:19 पूर्वाह्न
बढिया जानकारी, वैष्णवों एवं शैवों के अंतर्विरोध जग जाहिर हैं, कुछ काल के अंतराल के बाद विरोध खत्म होने से “हरिहर” का निर्माण हो गया और पंचायतन शैली के मंदिर बनाए जाने लगे।
जून 18, 2013 को 7:27 पूर्वाह्न
अहा हा हा हा ….सीधे बैकुंठ के दर्शन करा दिए सुबह सुबह -दिव्य और दैवीय! पुरातात्विक और ऐतिहासिक तत्व -विवेचन आपकी पोस्टों की विशिष्टता ही है!
जून 18, 2013 को 7:58 पूर्वाह्न
भले ही भक्त आपस में विरोधी हों, परंतु शिव और विष्णु दोनों ही एक दूसरे के आराधक हैं..
जून 18, 2013 को 8:02 पूर्वाह्न
इतिहास के रोचक पक्ष..आयातित राजा का तथ्य पहले नहीं सुना था।
जून 18, 2013 को 8:48 पूर्वाह्न
नये रहस्य खोलती ये पोस्ट. भाई चारा!
जून 18, 2013 को 12:29 अपराह्न
बहुत ही अदभुत जानकारी मिली, चित्र तो हकीकत बयान कर ही रहे हैं, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
जून 18, 2013 को 4:22 अपराह्न
रोचक जानकारी.न जाने कितने रहस्य छिपे हैं इन मंदिरों में.
जून 18, 2013 को 10:17 अपराह्न
स्थापत्य संग अद्भुत मूर्तिकला और दर्शनीय मंदिर की जानकारी के लिए आभार
जून 18, 2013 को 10:47 अपराह्न
इतिहास का इतिहास जानना भी आनंददायक बना देते हैं आप, आभार।
जून 19, 2013 को 5:50 पूर्वाह्न
वाह ..
भव्य सौंदर्य !
जून 19, 2013 को 8:07 पूर्वाह्न
स्थापत्य और मूर्तिकला का रोचक नमूना. अफसोस, मंदिर-मस्जिद के बीच पानी सूख गया.
जून 19, 2013 को 10:45 पूर्वाह्न
वास्तव में यहां के ये प्रस्तरस्थल अद्वितीय हैं
जून 19, 2013 को 6:03 अपराह्न
आपकी पोस्ट को आज के ब्लॉग बुलेटिन 20 जून विश्व शरणार्थी दिवस पर विशेष ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर …आभार।
जून 19, 2013 को 7:36 अपराह्न
बेहद खूबसूरत वर्णन | पढ़कर देखने का दिल करने लगा के अभी बैग उठाकर निकल जाऊं और घूम आऊं |
जून 20, 2013 को 3:14 अपराह्न
sundar
जून 25, 2013 को 9:13 अपराह्न
Dakshin Bharat ke Pallavayugin kala aur sthapatya ki tathyapurna evam rochak jankari hetu aabhar.
जून 25, 2013 को 11:06 अपराह्न
पोस्ट की शुरुआत में ही गोस्वामीजी याद आ गए –
शिवद्रोही मम दास कहावा।
ते नर माहि सपनेहु नहीं भावा।।