मेरे भाई को चेन्नई से 187 किलोमीटर दूर तिरुवन्नामलई जाना था, एक बैठक में भाग लेने. उसने मेरे समक्ष साथ चले चलने का प्रस्ताव रखा. मैं भी कई महीनों से बाहर नहीं जा पाया था सो इस कठिन शर्त के बावजूद कि सुबह साढे पांच बजे निकलना होगा, हमने अपनी स्वीकृति दे दी. इस बीच हमने विकिपीडिया से कुछ जानकारियाँ एकत्र कर लीं. संयोग से यह भी मालूम पड़ा कि तिरुमलई नामक कोई एक जगह वहीँ कहीं नजदीक ही है जहाँ जैनियों के प्राचीन गुफा मंदिर हैं. हमने भाई को अपनी भी शर्त रख दी कि तिरुमलई के जैन मंदिरों को देखने चलना होगा. दुसरे दिन सुबह तडके हम उठ बैठे और तैय्यार भी हो लिए. पांच बजे के पहले ही मुझे तैय्यार देख भाई को आश्चर्य हुआ क्योंकि वह खुद देर से उठा था. दाद देते हुए यह भी बताया कि घर पर मेहमान बन कर ठैरे एक दंपति भी साथ चलेगी. खैर इसमें कोई परेशानी तो नहीं थी परन्तु परिणाम स्वरुप हम लोगों की रवानगी 6 बजे ही हो पाई.
तिरुवन्नामलई के मंदिर आदि के दर्शन कर तीन बजे वापसी यात्रा प्रारंभ हुई इस बीच तिरुमलई के जैन मंदिरों के बारे में रास्ते आदि की जानकारी स्थानीय लोगों से ले ली. पता चला कि वह रास्ते में ही पड़ेगा. 15/20 किलोमीटर चलने पर सड़क के बायीं तरफ एक रास्ता जा रहा था और एक पट्टिका पर दिगंबर जैन मंदिर ३ किलोमीटर दूर होने की सूचना थी. बडे धर्म संकट की स्थिति थी. आस पास कोई पहाड़ या टीला भी नहीं था. यह सोच कर कि देख आने में हर्ज क्या है, उस रास्ते बढ गए. एक गाँव आया नाम था “कापलूर” और जैन मंदिर भी दिखा जो आधुनिक था. दरवाजे पर तो ताला पडा था लेकिन मालूम हुआ कि वहां 10 जैन परिवार हैं जो खेती किसानी करते हैं.
सतही तौर पर देख कर आगे बढ गए. हमारे ड्राइवर ने अपने किसी मित्र से जानकारी मोबाइल पर प्राप्त करी और आगे बढ़ते चले गए. आसमान पर बादल छा गए थे. “पोलूर” (जिसके पास मंदिर होने की सूचना थी) भी निकल गया और हमने जैन मंदिर दर्शन से वंचित हो जाने की कल्पना कर अपने आप को समझा भी लिया था. ड्राइवर मुख्य मार्ग को छोड सकरे ग्रामीण मार्गों में चल रहा था और अचानक एक जगह “तिरुमलई” के लिए दिशा निर्देश दिखे. हम सब प्रसन्न हुए. लगता है हमलोग 40 किलोमीटर का सफ़र तय कर चुके थे. देर आये दुरुस्त आये.
तमिल विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से भले एक हो परन्तु प्रारंभिक लेखन के लिए मौलिक रूप से ब्राह्मी लिपि का ही प्रयोग हुआ था जैसा कि अनेकों प्राचीन शिलालेखों से ज्ञात होता है. सुविधा के लिए यहाँ दृष्टिगोचर होने वाले उस प्राचीन लिपि को तमिल ब्राह्मी कहा गया है. जैन धर्म का आगमन ईसापूर्व ही हो चुका था और प्रतीत होता है कि जैन मुनियों के द्वारा ही उत्तर पूर्व से अपने साथ अपनी लिपि भी लाई गई. तमिलनाडु के प्राचीन समृद्ध साहित्य में जैन मुनियों का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है. विश्व प्रसिद्द “शिल्पधिकारम” के रचयिता “इलांगो अडिगल” एक जैन भिक्षु थे. शिल्पधिकारम प्रबुद्ध लोगों में जाना पहचाना नाम है इसलिए इस का नाम ले लिया. वैसे कई अन्य रचनाएं भी हैं
७ वीं/८ वीं सदी तक जैन धर्म को इस क्षेत्र में राजाश्रय प्राप्त हुआ और वे फलते फूलते रहे लेकिन बाद की घटनाओं जैसे शैव भक्ति आन्दोलन, शंकराचार्य के प्रभाव आदि का जैन धर्म पर प्रतिकूल प्रभाव पडा और जैन धर्म के प्रति लोगों का मोह भंग होने लगा. इतिहास साक्षी है कि राजा के धार्मिक आसक्ति का प्रभाव प्रजा पर पड़ता ही है. शनै शनै जैन धर्म दक्षिण में तो लुप्त प्रायः हो गया. उनकी धार्मिक विरासत अनेकों गिरि कंदराओं में दुबकी पडी है.
लुंगीधारी स्थानीय जैनी – मठ के सामने
उन्हीं में से एक है तिरुमलई अतिशय क्षेत्र (अनुवाद = श्रीगिरि) जिसके बहुत करीब पहुँच चुके थे. रास्ते में पहले एक जैन न्यास के द्वारा संचालित शाला भवन दिखा और कुछ ही आगे बाएं अरहंतगिरि मंदिर और “मठ” जो आधुनिक हैं . उसी रस्ते आगे गाँव है जिसकी गलियों से गुजरते उस पवित्र पहाडी के तलहटी में पहुंचे. वहीँ दक्षिण भारतीय शैली में बना प्रवेश द्वार दिखा और अन्दर पहला मंदिर. इस मंदिर के सामने एक मंडप है फिर गर्भगृह. गर्भगृह तीन खण्डों में है. पहले कक्ष में कुछ भी नहीं है. गर्भगृह के बाहर के कक्ष के बायीं तरफ एक तीर्थंकर की काले पत्थर से बनी मूर्ति रखी थी और अन्दर संभवतः गौर वर्ण के महावीर जी (वर्धमान) विराजे थे. मूर्ति के पीछे की दीवार में भित्ति चित्र बने थे जिनका क्षरण हो चला है. मंदिर उजाड सा है और रख रखाव के आभाव में क्षति ग्रस्त हुआ जा रहा है. इस मंदिर के अलंकरण विहीन मंडप से ऐसा लगता है मानो संन्यास ले रखा हो. मंदिर का निर्माण विजयनगर काल का समझा जाता है.
इस मंदिर के दाहिनी तरफ से ऊपर पत्थर को तराश कर बना मार्ग है जो ऊपर एक समतल भूमि पर ले जाता है . यहाँ एक और मंदिर है यह मंदिर नेमिनाथ की होनी चाहिए क्योंकि राजा राजा चोल की बडी बहन “कुण्डवाइ” के 10 वीं सदी के, यहीं जमीन में धंसे, एक शिलालेख में उसके द्वारा एक मंदिर के निर्माण का उल्लेख है. यही कारण है कि यहाँ के मंदिर को स्थानीय लोग कुण्डवाइ जीनालायम कहते हैं. इस मंदिर का मण्डप कुछ बड़ा सा है परन्तु शिखर गायब हो चुकी है. गर्भगृह बंद था और पुजारी के लिए बुलावा भेजा गया परन्तु नहीं मिल सका. मंदिर के सामने कतार से एक मनस्थम्भ और फिर एक बलिपीठ बना है. बलिपीठ अधिक पुराना जान पड़ता है. साधारणतया बलिपीठ यहाँ के हिन्दू मंदिरों में ही पाया जाता है.
दाहिनी तरफ भीमकाय चट्टानें हैं भूतल पर चट्टानों में ही कुछ छोटे कक्ष बने हैं जिनमें मूर्तियाँ रखी है. उनमें कुछ खाली भी पडे हैं. पहाडी का ऊपरी चट्टान आगे की तरफ निकला हुआ है और बीच वाले हिस्से का प्रयोग करते हुए तीन स्तरों पर निर्माण हुआ है. ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर की सीढ़ी है. ऊपर बड़ा सकरीला है और यहाँ भी मूर्तियाँ हैं. कुछ कक्षों में मैंने पाया कि एक डेढ़ फीट ऊंची पीठिका तो दिख रही है परन्तु कोई मूर्ति नहीं है. गुफा की दीवार पर मूर्ती के अंशों का होना पाया गया और जब हमने ए एस आई के कर्मी से पूछा तो उसने बताया, साबजी मूर्ती गल गई. यह जरूर है कि ऊपर की छत में पानी के कण दिखाई दे रहे थे. तो क्या मूर्ति पत्थर की नहीं बनी थी. इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मूर्तियों का, जो दिखने में सफ़ेद थीं, निर्माण स्टुको (गचकारी) तकनीक से किया गया रहा होगा.परन्तु उसके लिए बेस या आधार तो चाहिए होता है.
सबसे ऊपर छत और दीवारों पर बहुत ही खूबसूरत भित्ति चित्र बने हैं. नमी के कारण उनका भी क्षरण हो गया है. वैसे भित्ति चित्र नीचे के कक्षों में भी हैं परन्तु अन्दर घुसना और फोटो लेना बेहद कष्टदायक है.
हम लोग अपनी खोपड़ी बचाते हुए सकुशल नीचे आ गए हमें बताया गया कि पहाडी के शीर्ष तक जाने के लिए रेलिंग युक्त सीढ़ी कुछ दूरी पर बायीं ओर बनी है. तीन चौथाई ऊपर एक छोटा सा मैदान जैसा है. यहीं पर नेमिनाथ (श्री कृष्ण के चचेरे भाई) जी की 16 फीट ऊंची खडी मूर्ति एक शिखर युक्त कक्ष में रखी है. पूरी प्रतिमा का फोटो ले पाना कठिन है क्योंकि वह सलाखों के पीछे है. यहाँ से और ऊपर जाएँ तो पार्श्वनाथ जी का एक छोटा मंदिर बना है. यहीं भावनगर के एक गुजराती परिवार से भेंट हो गई. पूछने पर उन्होंने बताया कि इस जगह का उल्लेख उनकी ग्रंथों में है और वे यात्रा पर आये हैं. सबसे ऊपर की चट्टानों में तराशे गए तीन पद चिन्ह भी मिले जो उन जैन मुनियों के हैं जिन्होंने सल्लेखन द्वारा अपने प्राण त्यागे थे. वे अभिलिखित हैं परन्तु वह लिपि पल्ले नहीं पडी.
आ रहे हैं भैय्या थोड़ा सुस्ता तो लेने दो
चट्टानों के पीछे है नेमिनाथ जी का शिखर युक्त कक्ष
मंदिर का एक विहंगम दृश्य – पुरानी तस्वीर
जुलाई 21, 2013 को 7:05 पूर्वाह्न
शुभ प्रभात
जय जिनेन्द्र
नई जानकारी
नया तीर्थ
धन्यवाद सुब्रिमणियम जी
आभार
जुलाई 21, 2013 को 8:16 पूर्वाह्न
वाह! अच्छा यह बताईये क्या लुंगी का दक्षिण भारतीय परिधान किसी रूप में जैनियों से जुड़ा है या देंन है ?
जुलाई 21, 2013 को 8:32 पूर्वाह्न
तिरुमलई के प्राचीन गुफ़ा मंदिरों के साथ ही बडी दुर्लभ जानकारी प्राप्त हुई!!
बाहुबलि जी की कायोत्सर्ग मुद्रा (खडी मूर्ति) और दोनो तरफ ब्राह्मी और सुंदरी दोनो बहनो का आलेखन, बहनो द्वारा बाहुबली को प्रतिबोध कथानक का सुंदर प्रस्तुतुकरण है.
इस यात्रा वृतांत के लिए आभार, सुब्रिमणियम जी!
जुलाई 21, 2013 को 10:55 पूर्वाह्न
कई जैन स्थान देखे हैं, पहाड़ी पर ही अधिक मिले हैं..कोई कारण विशेष?
जुलाई 21, 2013 को 11:59 पूर्वाह्न
दक्षिण में जैन मन्दिर?! मुझे यह ज्ञात नहीं था। और जैन (?) मन्दिर में बलिपीठ? यह विषय तो और विस्तार मांगता है।
तमिळनाडु में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के लोग भी हैं?
जुलाई 21, 2013 को 9:29 अपराह्न
स्थापत्य में मूर्तिकला और चित्रकला का सुंदर समावेश.
जुलाई 21, 2013 को 11:22 अपराह्न
जैन मन्दिर में बलिपीठ कुछ वैसा ही तो नहीं है जैसे बहुत सी ऐतिहासिक हिन्दु ईमारतों पर ऊपर ऊपर फ़र्निशिंग करके उन्हें मुगलों द्वारा बनाई गई ईमारत प्रचारित कर दिया गया है?
जुलाई 22, 2013 को 11:58 पूर्वाह्न
बहुत बेहतरीन जानकारी मिली, आभार.
रामराम.
जुलाई 22, 2013 को 11:59 पूर्वाह्न
आज के दैनिक भास्कर में आपकी मुरूद जंजीरा वाली पोस्ट का जिक्र भी है, बहुत बधाई.
रामराम.
@जी बहुत बहुत अभार. अभी कोयम्बतूर में हूँ बाद में ही देख पाऊंगा
जुलाई 24, 2013 को 6:34 अपराह्न
@ डा. अरविन्द मिश्रा: दक्षिण में जो जैनी हैं वे तो यहीं के हैं स्थानीय लोग ही जैन धर्म में धर्मान्तरित हुए थे.
जुलाई 24, 2013 को 6:45 अपराह्न
@ संजय: नहीं. आपकी धारणा निर्मूल है. मंदिर का निर्माण हिन्दू राजवंश की रानी द्वारा जैनियों के हितार्थ करवाया गया था यह जानकार कि वह स्थल जैनियों के लिए महत्त्व रखती है. सम्भावना यही है कि मंदिर निर्माण में तत्कालीन हिन्दू परंपरा को ही अपनाया गया हो.
जुलाई 24, 2013 को 7:02 अपराह्न
South me jain mandir ka hona hi ek rochak si baat hai..us par itani jaankaari evam tasveeren..aabhaar.
जुलाई 24, 2013 को 7:28 अपराह्न
नई जानकारी, धन्यवाद आभार
जुलाई 24, 2013 को 8:03 अपराह्न
Great…!I was under the impression that jainism is confined to north only…
जुलाई 25, 2013 को 1:07 पूर्वाह्न
दक्षिण भारत में भी जैन धर्म का प्रचार प्रसार के ही द्योतक हैं ये मंदिर आप तो हमेशा दूर की कौडी लाते हैं । चित्रों से सजा जानकारी पूर्ण आलेख
जुलाई 25, 2013 को 1:09 पूर्वाह्न
बहुत कुछ जानने को है अपने देश में…तमिलनाडू में भी जैनियों ने अपना वजूद बनाये और अपनी धरोहरों को सुरक्षित रखा हुआ है ,जानकार अच्छा लगा.
अगर गुफा में चित्र लेना मुश्किल रहा था .क्या ठीक से खड़े होने की जगह नहीं थी?या प्रयाप्त प्रकाश न होने के कारण?
सोचती हूँ उस ज़माने में इतना भीतर इतनी सुन्दर कलाकृतियाँ भित्ति चित्र कैसे बनाये गए होंगे?
भाग्यशाली हैं आप जो इन स्थानों को देख रहे हैं और हम भी जो आप के द्वारा इनकी जानकारी प्राप्त कर पा रहे हैं.
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इस से पहले भी चेन्नई में जैन मंदिरों के बारे में जानकारी मिली थी .इस पर एक पोस्ट काफी विस्तार से महावीर सेम्लानी जी ने ताऊ जी के ब्लॉग पर लिखी थी.http://taau.taau.in/2010/08/89-rock-cut-jain-temple.html
जुलाई 25, 2013 को 9:14 पूर्वाह्न
Pleasent
जुलाई 25, 2013 को 5:15 अपराह्न
First of all, Thanks to you to describing about the place in a great manner. Please keep it up.
Tamilnadu has more than 400 jain heritage places – even exist -today- but many of them are in ruins now and need urgent help.
Even north indian jains are unaware with that and mostly knows only till mysore. There are nearly 1 Lac tamil jains (who all are from digambara 20 panthee sect) today and live in 200 villages/places from Kanchipuram, Chennai to Madurai. They are mostly agriculturists.
Tirumalai is counted in top 5 tamil jain heritage places. Because this is under ASI, we just can write to ASI for taking care of it properly.
Jai Jinendra to All,
Manish Jain
जुलाई 26, 2013 को 10:39 पूर्वाह्न
अतिसुन्दर 🙂
जुलाई 26, 2013 को 5:44 अपराह्न
@ अल्पना: आभार. कम ऊंचाई के कारण खड़े होने की तो कोई गुंजाइश नहीं थी. कैमरे को ऊपर की तरफ फोकस करना लहभग असंभव था. हाँ नीचे कैमरे को रख टाइमर सेट कर कुछ चित्र लिए जा सकते थे, जो नहीं किया.