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एक ज्योतिर्लिंग ऐसा जहाँ शिव लिंग दिखाई नहीं देता

मई 4, 2009

ब हम लोग मुंबई गए थे, हमारे साले साहब ने सुझाया कि कहीं बाहर चलें. सबका रुझान तो धार्मिक पर्यटन पर ही रहा. हमने भी बात मान ली कि कहीं हमारी रूचि की भी कोई बात बन जाए. हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि हम अधार्मिक हैं लेकिन समस्या तब उत्पन्न होती है जब बाकी सब लोग केवल धार्मिक ही बन कर रह जाते हैं और इधर उधर नज़र दौडाने से परहेज रखते हैं. हम लोगों ने कार्यक्रम बनाया. पहले शनि महाराज का दर्शन करेंगे जो शनिशिनगनापुर में वास करते हैं. वहां से शिर्डी और फिर नासिक होते हुए त्रियंबकेश्वर. एक सूमो गाडी का इंतज़ाम भी हो गया. हम कुल पांच थे. हम, हमारी अर्धांगिनी, साला उसकी पत्नी और एक पत्नी रहित छोटा साला.

भैय्या हम लोग एक सुबह निकल ही पड़े. हमने महा मृतुन्जय मन्त्र का जाप भी किया “त्रियम्बकम यजामहे सुगंधिम पुष्टि वर्धनम, उर्वारुका मिव बन्धनात, मृत्यो मुक्षी यमामृतायात”   मुंबई पुणे एक्सप्रेस हाइवे पर हमारा पहला अनुभव था. पहले ही पड़ाव में जहाँ गाड़ी रुकी, बहुत ही बढ़िया आधुनिक ढाबा था जहाँ हर प्रांत के व्यंजन उपलब्ध थे. निवृत्त होने के लिए बहुत ही सॉफ सुथरा इंतज़ाम. बच्चों के मनोरंजन का भी पूरा इंतज़ाम था हालाकि हमारे साथ कोई बच्चे नहीं थे. उस हाइवे पर बड़ा ही मनोहारी प्रबंध. वहाँ से आगे बढ़े, लोनावला होते हुए अहमदनगर पहुँचे. हमने जान बूझ कर कहा की यहाँ साड़ियाँ अच्छी मिलती हैं ऐसा सुना है. महिलाओं में खलबली मच गई परंतु गाड़ी वहाँ के किले के सामने  से निकल गयी और हम हाथ मलते रह गये. किला जो छूट गया. एक चौराहा आया, बाईं तरफ सड़क शनिशिनगनापुर जाती थी तो दाहिनी ओर शेगाँव के लिए रास्ता था. हमें संत गजानन महाराज का स्मरण हो आया. लेकिन पता चला कि उनकी समाधी अकोला के पास वाले शेगाँव में है.  जैसा पहले से ही कार्यक्रम था, हम लोग शनि महाराज के दर्शन के लिए पहुँच गये. पूजा सामग्री की खरीदी की गयी तो हमें आगाह किया गया कि  हम लोग गाड़ी में ताला ना लगाएँ. ऐसी मान्यता है कि  वहाँ चोरी नहीं होती. वहाँ के लोगों के घर दरवाज़े नहीं होते. वैसे हमें फ़िक्र भी नहीं थी क्योंकि माल असबाब तो महिलाओं के पास था और शनि की शिला पर केवल पुरुष ही तेल चढाने  जा सकते थे. इसके लिए उनके द्वारा दिए गये धोती को पहन पूरा गीला होना पड़ता है. नहाने के लिए नलों की व्यवस्था थी. वहाँ के कार्यक्रम के बाद हम लोग शिर्डी के लिए बढ़ गये जब कि हमारी पत्नी हल्ला करती रही कि यहाँ पर कोई काँच से बना देवी का मंदिर भी है.

रास्ते में ही एक ढाबे में हम लोगों ने खाना खाया. पूरे रास्ते में गन्ने के खेत थे और कुछ शराब के कारखाने भी. शिर्डी पहुँच कर सीधे दर्शन के लिए जुट गये. कोई समस्या नहीं हुई. उस पेड़ को भी देखा जिसके नीचे साईं बाबा बैठा करते थे. शिर्डी में रुकने का मन नहीं था क्योंकि हमें त्रियंबकेश्वर भी तो जाना था. इसलिए सीधे नासिक निकल पड़े. रात हो गयी थी और हमें आश्रय मिला गुजराती समाज के एक विश्राम गृह में. किराया बहुत ही कम था और उसी के अनुरूप सुविधाएँ भी थीं . कमरों में बाथ रूम लगा था परंतु रख रखाव अच्छा नहीं कहा जा सकता. उसी कम्पौंड में “मुक्ति धाम” का आधुनिक मंदिर भी है जो संगेमरमर से बना है. यहाँ 12 ज्योतिर्लिंगों को प्रदर्शित किया गया है. “मुक्ति धाम”, यह संबोधन बड़ा ही भ्रामक है. nasik-ke-ghat

रात वहीँ बिता कर सुबह नासिक भ्रमण के लिए निकल पड़े. वहाँ के राम कुंड और वो जगह जहाँ कुंभ में सैकड़ों लोग मर गये थे, का अवलोकन किया. प्लेटफोर्म जैसे घाट बने थे और पानी भी भरपूर था. एक होटेल में नाश्ता भी कर लिया, जो भी मिला वाली बात थी. फिर सीधे त्रियंबकेश्वर जो करीब 28 किलोमीटर दूर थी. लगभग 19 किलोमीटर चलने के बाद हमें बाईं तरफ “मॉनिटरी म्यूज़ीयम” का बड़ा सा सूचना पट दिखा.numismatic यह संग्रहालय इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ रिसर्च इन नूमिसमॅटिक स्टडीस का ही हिस्सा था. यह संस्थान भारत में मुद्राओं के अध्ययन और अध्यापन का सबसे बड़ा केंद्र है. मुंबई के माहेश्वरी फाउंडेशन के द्वारा संचालित. हमने इसे वापसी में देखने की सोची. कुछ आगे बढ़ने पर अंजनेरी नाम का गाँव दिखा जहाँ लिखा था कि इसी जगह हनुमान (आंजनेय) ने जन्म लिया था. यहाँ की बसाहट काफ़ी प्राचीन है क्योंकि इस गाँव में 4/5 प्राचीन मंदिरों के खंडहर पाए जाते हैं. एक जैन मंदिर तो 11 वीं सदी का है. लगता है कभी यहाँ जैनियों की आबादी रही होगी. anjaneri-11th-jain

त्रियंबकेश्वर पहुँचने तक दुपहर हो चली थी परंतु मंदिर दर्शन के लिए खुला था. उस दिन ना जाने क्यों अत्यधिक भीड़ थी और लाइन में हमें तो 1 घंटे के ऊपर खड़े रहना पड़ा. लगभग दो बजे गर्भगृह में प्रवेश कर पाए थे. हमारे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा जब देखा कि जलहरी पर शिवलिंग है ही नहीं. केवल एक गोलाकार गड्ढा जिसको देखकर आभास होता था कि कभी उस गड्ढे में शिवलिंग रहा होगा जो किसी कारणवश निकल गया या अतातायियों के द्वारा उखाड़ फेंका गया. परंतु वहाँ तो कहानी ही कुछ और थी. कहते हैं कि उस गड्ढे के अंदर ही तीन लिंग बने हैं जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक हैं. समूचे भारत में यहीं एक जगह है जहाँ के ज्योतिर्लिंग की आराधना त्रिमूर्ति स्वरूप की जाती है. ऊपर की तरफ एक आईना रखा हुआ है जिस में जलहरी का प्रतिबिंब दिखता है परंतु गड्ढे के अंदर का भाग समझ में नहीं आता. कहते हैं कि अनवरत पानी के प्रवाह के कारण तीनों लिंगों का क्षरण हो गया. trimbakeshwar

इन बातों से हम संतुष्ट नहीं हो पाए. क्योंकि यदि त्रिमूर्ति के रूप में वहाँ के ज्योतिर्लिंग की स्थापना हुई है तो फिर शिल्पकार चाहता तो संयुक्त रूप से एक ही पत्थर को तराश कर तीन लिंगों में विभाजित कर सकता था और जलहरी में बिठा देता. हमारा तो मानना है कि उस गड्ढे में एक शिवलिंग स्थापित था जो निकल गया या निकाल दिया गया. अंदर जो तीन पत्थर के लिंग रूपी बनावट है वह वास्तव में शिवलिंग को स्थिर रखने के प्रायोजन से खाँचे की तरह बनाए गये थे. शिव लिंग जो रहा होगा उसके निचले भाग में तीन छिद्र रहे होंगे जिस से वह जलहरी में ठीक से बिना हिले डुले स्थिर रह सके.

बाहर निकलने के बाद हमने इधर उधर नज़र दौड़ाई तो हमें दो या तीन शिव लिंग  बिखरे पड़े मिले. हमें लगा था कि हो सकता है  इनमे से ही कोई अंदर रहा हो. हम सूक्ष्म निरीक्शण नहीं कर पाए क्योंकि सबको भूक लगी थी और हम पर गुर्रा रहे थे. हम सब के साथ हो लिए और खाना खाने के लिए होटल की तलाश में जुट गये.

इस बीच हम आपको बता दें कि इस मंदिर के निर्माण के बारे में कोई अधिकृत जानकारी हमारे पास नहीं है. संभवतः यह मराठों (पेशवा)  के समय का है. प्रत्येक सोमवार को सायं 4 से 5 के बीच में जलहरी पर एक हीरे और अन्य रत्नों से जडित मुकुट को रख कर प्रदर्शित किया जाता है. एक और ऐतिहासिक सत्य यह भी है कि यहाँ के ज्योतिर्लिंग में “नासाक” नामका 43 केरट वाला हीरा था जिसे एंग्लो मराठा युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ले गई और उसे बेच दिया. आज वह हीरा अमरीका में है. कहा जाता है कि यह हीरा वहाँ सन 1500 से लेकर 1817 तक ज्योतिर्लिंग को शोभायमान करता रहा.

खाने का जुगाड़ हो जाने और पेट पूजा कर हम लोग उस “कुशवरता” कुंड को देखने गये जिसे गोदावरी नदी का उदगम माना जाता है. पानी के गहरे होने की सूचना हिन्दी, अँग्रेज़ी और मराठी में लिखी हुई थी. वैसे तो गोदावरी का उदगम स्थल ब्रह्मगिरि की पहाड़ी है जिसकी तलहटी में त्रियंबकेश्वर बसा है. वहाँ ऊपर ब्रह्मगिरि पर कभी गौतम ऋषि का आश्रम था. यहाँ गोदावरी को गौतमी भी कहते हैं. उसकी तो फिर अलग कहानी है.

हम लोगों ने वापस नासिक का रुख़ किया. रास्ते में हमें “मॉनिटरी म्यूज़ीयम” ने आकृष्ट किय. तब तक सायं 5 बाज रहे थे. सबने एक सुर में कहा ये तो बंद हो गया होगा. हमने फिर भी गाड़ी रुकवाई और उतर कर चल पड़े. सामने ही तो था. वहाँ एक सज्जन मिले नाम था दानिश मोईन. उन्होने कहा कि अभी अभी बंद किया है. उन्होने हमारा परिचय जानना चाहा और हमने बता भी दिया. बहुत ही सुखद अनुभूति हुई जब उन्होने हमें एकदम पहचान लिया और गर्म जोशी से गले मिले. कहा सर आप के लिए हम खोल रहे हैं.(वास्तविकता यह है कि वहाँ बहुत ही कम लोग जाते हैं. यादि कोई आ गया तो वहाँ के लोग अपना सौभाग्य मानते हैं – यही है  धरोहर के प्रति हमारी निष्ठा) हमने गाड़ी में बैठे अपने लोगों को बुला लिया और दानिश मोईन साहब से आग्रह किया कि वे ही इनको घुमाकर समझा भी दें. यह इसलिए कि हमारी बातों का वजन उतना नहीं पड़ता जितना उनका. उन्होने भारत की प्राचीनतम मुद्राओं के बनाए जाने की प्रक्रिया समझाई जिसके लिए वहाँ बहुत सारी झाँकियाँ बनाई गयी थी. फिर भारत के सभी मुद्राओं के संग्रह का अवलोकन कराया. हमारे लिए मोईन साहब ने बहुत मेहनत की. यह इस बात से भी जाहिर हो रहा था कि हमारे लोग अब “जानकार” हो चले थे.

यहाँ से जब निकले तो हमारे साले साहब आश्चर्य चकित थे कि यहाँ के लोग हमें कैसे जानते हैं. हम भी फूले नहीं समाए और दंभ से कह दिया कि क्या तुम्हारे मुंबई में हमारे चाहने वाले नहीं हैं? आगे और कह दिया कि भाई हमारी भी कोई औकात है भले नौकरी में नहीं हैं. तमिलमें कहा था हिन्दी में नहीं.

रास्ते में कसारा घाट के बाद खाना वाना कर लिया था और लगभग 11 बजे रात मुंबई अपने घोंसले मे पहुच ही गये.